अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 7
वी॒दं मध्य॒मवा॑सृपद्रक्षो॒हामी॑व॒चात॑नः। अमी॑वाः॒ सर्वा॑श्चा॒तय॑न्ना॒शय॑दभि॒भा इ॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठवि। इ॒दम्। मध्य॑म्। अव॑। अ॒सृ॒प॒त्। र॒क्षः॒ऽहा। अ॒मी॒व॒ऽचात॑नः। अमी॑वाः। सर्वाः॑। चा॒तय॑त्। ना॒शय॑त्। अ॒भि॒ऽभाः। इ॒तः ॥४४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
वीदं मध्यमवासृपद्रक्षोहामीवचातनः। अमीवाः सर्वाश्चातयन्नाशयदभिभा इतः ॥
स्वर रहित पद पाठवि। इदम्। मध्यम्। अव। असृपत्। रक्षःऽहा। अमीवऽचातनः। अमीवाः। सर्वाः। चातयत्। नाशयत्। अभिऽभाः। इतः ॥४४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(इदम्) यह परमेश्वररूप भेषज (मध्यम्) हृदयमध्य में जब (वि अवासृपद्) हृदय के विशिष्ट-स्थान में निजप्रकाशरूप में फैल जाता है, तब परमेश्वर (रक्षोहा) राक्षसी भावों का हनन करता, और (अमीवचातनः) रोगोत्पादक दुष्परिणामी अमीवानामक क्रिमियों को दूर करता है। (इतः) यहाँ से (सर्वाः) सब (अमीवाः) अमीवा क्रिमियों को (चातयन्) दूर करता हुआ, और (अभिभाः) आक्रमणकारी अन्य रोगक्रिमियों का (नाशयत्) नाश करता हुआ परमेश्वर निज प्रकाशरूप में फैल जाता है।
टिप्पणी -
[परमेश्वर भेषज है (मन्त्र १, तथा ६)। तथा परमेश्वर को “सुभिषक्तमः” अर्थात् सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक भी कहा है। यथा— “यश्चकार स निष्करत् स एव सुभिषक्तमः। स एव तुभ्यं भेषजानि कृणवद् भिषजा शुचिः” (अथर्व० २.९.५)। तथा— “हे जगदीश्वर! आप (भेषजम्) शरीर अन्तःकरण इन्द्रिय और गाय आदि पशुओं के रोग नाश करनेवाले (असि) हैं” (यजुः० ३.५९) दयानन्दभाष्य। मध्यम्= हृदय के भीतर परम व्योमात्मक ब्रह्मनाद है, जो कि तुरीय स्थान अर्थात् तुरीय-ब्रह्म के प्रकाश का स्थान है” (योग० १.३६) पर वाचस्पति टीका। अमीवाः=दुर्णामा क्रिमि, अर्थात् दुष्परिणामों को पैदा करनेवाला क्रिमि। यथा— “यस्ते गर्भममीवा दुर्णामा योनिमाशये। अग्निष्टं ब्रह्मणा सह निष्क्रव्यादमनीनशत्” (ऋ० १०.१६२.२)। “दुर्णामा क्रिमीर्भवति पापनामा” (निरु० ६.३.१२)। मन्त्र ऋ० १०.१६२.२ में अमीवा क्रिमि को योनि का क्रिमि कहा है। और इसके नाश के दो साधक कहे हैं, अग्नि (अग्निहोत्र?) तथा ब्रह्म (परमेश्वर)। आञ्जन-भेषज (सुरमा) के सम्बन्ध में मन्त्रार्थ स्पष्ट है। इस संबंध में “मध्यम्” का अर्थ है शरीर का मध्यभाग, अर्थात् उदर और छाती में जब यह भेषज “वि असृपत्” विशेषतया फैल जाता है, तब यह रोगों का विनाश करता है। सब रोगों का उद्गमस्थान शरीर का मध्य स्थान ही है। पेट, हृदय और फेफड़ों के स्वस्थ रहते रोग आक्रमण नहीं करते।]