अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
ऋ॒णादृ॒णमि॑व॒ सं न॑यन् कृ॒त्यां कृ॑त्या॒कृतो॑ गृ॒हम्। चक्षु॑र्मन्त्रस्य दु॒र्हार्दः॑ पृ॒ष्टीरपि॑ शृणाञ्जन ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒णात्। ऋ॒णम्ऽइ॑व। स॒म्ऽनय॑न्। कृ॒त्याम्। कृ॒त्या॒ऽकृतः॑। गृ॒हम्। चक्षुः॑ऽमन्त्रस्य। दुः॒ऽहार्दः॑। पृ॒ष्टीः। अपि॑। शृ॒ण॒। आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒ ॥४५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋणादृणमिव सं नयन् कृत्यां कृत्याकृतो गृहम्। चक्षुर्मन्त्रस्य दुर्हार्दः पृष्टीरपि शृणाञ्जन ॥
स्वर रहित पद पाठऋणात्। ऋणम्ऽइव। सम्ऽनयन्। कृत्याम्। कृत्याऽकृतः। गृहम्। चक्षुःऽमन्त्रस्य। दुःऽहार्दः। पृष्टीः। अपि। शृण। आऽअञ्जन ॥४५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(ऋणात्) ऋण लेने के पश्चात् ऋणी (इव) जैसे (ऋणम्) ऋण को, ऋणदाता के (गृहम्) घर (सं नयन्) पहुँचाता है, वैसे (आञ्जन) हे कान्तिकारक राजन्! (कृत्याकृतः) हिंस्र सेना तैय्यार करनेवाले की (कृत्याम्) हिंस्रसेना को (गृहम्) उसी के घर अर्थात् राज्य में (सं नयन्) सम्यक् रूप से पहुँचाता हुआ तू (चक्षुर्मन्त्रस्य) गुप्तचरों द्वारा तेरे साथ गुप्त मन्त्रणा करनेवाले, (दुर्हार्दः) परन्तु कपटहृदयी ऐसे परराष्ट्र के राजा की (पृष्टीः अपि) हड्डी-पसलियों को भी (शृण) तोड़-फोड़ दे।
टिप्पणी -
[आञ्जन= आ अञ्ज् (=कान्ति)। कृत्या=कृती छेदने। चक्षुः= यह पद गुप्तचरों का सूचक है। राजाओं को “चारचक्षुः” कहा गया है। यथा—“चारचक्षुर्महीपतिः” (मनु० ९.२५६); तथा— “चारैः पश्यन्ति राजानः” (कामन्दक)। ऋणात्= ऋणग्रहणानन्तरम्। अभिप्राय यह कि आक्रमण के प्रयोजन से प्रेषित सेना का विध्वंस न करते हुए, यथातथा उस सेना को उसी के राष्ट्र में वापिस चले जाने के लिये बाधित करना चाहिये, परन्तु प्रेषक कपटी परराष्ट्र के राजा को यथोचित दण्ड अवश्य देना चाहिये।]