अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 7
सूक्त - भृगुः
देवता - आञ्जनम्
छन्दः - एकावसाना निचृन्महाबृहती
सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
इन्द्रो॑ मेन्द्रि॒येणा॑वतु प्रा॒णाया॑पा॒नायायु॑षे॒ वर्च॑स॒ ओज॑से तेज॑से स्व॒स्तये॑ सुभू॒तये॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑। मा॒। इ॒न्द्रि॒येण॑। अ॒व॒तु॒। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नाय॑। आयु॑षे। वर्च॑से। ओज॑से। तेज॑से। स्व॒स्तये॑। सु॒ऽभू॒तये॑। स्वाहा॑ ॥४५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो मेन्द्रियेणावतु प्राणायापानायायुषे वर्चस ओजसे तेजसे स्वस्तये सुभूतये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। मा। इन्द्रियेण। अवतु। प्राणाय। अपानाय। आयुषे। वर्चसे। ओजसे। तेजसे। स्वस्तये। सुऽभूतये। स्वाहा ॥४५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(इन्द्रः) वणिक्-अधिकारी (इन्द्रियेण) वाणिज्य-सम्पत्ति द्वारा (मा) मेरी रक्षा कर। ताकि मैं (प्राणाय अपानाय...) आदि पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[इन्द्र=वणिक्। यथा—“इन्द्रमहं वणिजं चोदयामि” (अथर्व० ३.१५.१) अर्थात् मैं राजा, इन्द्र अर्थात् वणिक् को वाणिज्य-व्यापार के लिए प्रेरित करता रहता हूँ। वाणिज्य द्वारा राजा राष्ट्र के प्रजाजनों की समुन्नति चाहता है। अथर्व० ३.१५ का समग्र सूक्त व्यापार सम्बन्धी है।]