अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 8
सूक्त - भृगुः
देवता - आञ्जनम्
छन्दः - एकावसाना निचृन्महाबृहती
सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
सोमो॑ मा॒ सौम्ये॑नावतु प्रा॒णाया॑पा॒नायायु॑षे॒ वर्च॑स॒ ओज॑से तेज॑से स्व॒स्तये॑ सुभू॒तये॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसोमः॑। मा॒। सौम्ये॑न। अ॒व॒तु॒। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नाय॑। आयु॑षे। वर्च॑से। ओज॑से। तेज॑से। स्व॒स्तये॑। सु॒ऽभू॒तये॑। स्वाहा॑ ॥४५.८॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमो मा सौम्येनावतु प्राणायापानायायुषे वर्चस ओजसे तेजसे स्वस्तये सुभूतये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठसोमः। मा। सौम्येन। अवतु। प्राणाय। अपानाय। आयुषे। वर्चसे। ओजसे। तेजसे। स्वस्तये। सुऽभूतये। स्वाहा ॥४५.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(सोमः) चन्द्रमा के सदृश सौम्य प्रकृतिवाला अधिकारी (सौम्येन) सौम्यस्वभाव के सदुपदेशों द्वारा (मा) मेरी रक्षा करे। ताकि मैं (प्राणाय अपानाय.....) आदि पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[मन्त्र में “मा” पद द्वारा समस्त प्रजाजन अभिप्रेत हैं। प्रजाजनों को सौम्य प्रकृति का होना चाहिए, उग्र प्रकृति का नहीं। उग्र प्रकृति से पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष कलह युद्ध आदि की सम्भावना बनी रहती है। “सोम” नैतिक शिक्षा का अधिकारी है।]