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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 45

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुः देवता - आञ्जनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आञ्जन सूक्त

    अ॒पामू॒र्ज ओज॑सो वावृधा॒नम॒ग्नेर्जा॒तमधि॑ जा॒तवे॑दसः। चतु॑र्वीरं पर्व॒तीयं॒ यदाञ्ज॑नं॒ दिशः॑ प्रदिशः कर॒दिच्छि॒वास्ते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। ऊ॒र्जः। ओज॑सः। व॒वृ॒धा॒नम्। अ॒ग्नेः। जा॒तम्। अधि॑। जा॒तऽवे॑दसः। चतुः॑ऽवीरम्। प॒र्व॒तीय॑म्। यत्। आ॒ऽअञ्ज॑नम्। दिशः॑। प्र॒ऽदिशः॑। क॒र॒त्। इत्। शि॒वाः। ते॒ ॥४५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपामूर्ज ओजसो वावृधानमग्नेर्जातमधि जातवेदसः। चतुर्वीरं पर्वतीयं यदाञ्जनं दिशः प्रदिशः करदिच्छिवास्ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। ऊर्जः। ओजसः। ववृधानम्। अग्नेः। जातम्। अधि। जातऽवेदसः। चतुःऽवीरम्। पर्वतीयम्। यत्। आऽअञ्जनम्। दिशः। प्रऽदिशः। करत्। इत्। शिवाः। ते ॥४५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (अपाम्) जलोत्पन्न (ऊर्जः) अन्नों के (ओजसः) ओज से (वावृधानम्) वृद्धि को प्राप्त, (जातवेदसः अग्नेः अधि) मानो जातवेदा अग्नि से (जातम्) उत्पन्न, अर्थात् अग्निसमान तेजस्वी और परोपकारी, (पर्वतीयम्) पर्वतयात्राओं में कुशल, (आञ्जनम्) कान्तिसम्पन्न, (चतुर्वीरम्) चार प्रकार की सेनाओं के वीरों वाला (यद्) जो तेरा सैनिक-बल है, वह (ते) हे राजन्! तेरे लिए (दिशः प्रदिशः) दिग्-दिगन्तरों को (इत् शिवाः) अवश्य कल्याणकारिणी (करत्) कर दे।

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