अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 10
सूक्त - भृगुः
देवता - आञ्जनम्
छन्दः - एकावसाना निचृन्महाबृहती
सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
म॒रुतो॑ मा ग॒णैर॑वन्तु प्रा॒णाया॑पा॒नायु॑षे॒ वर्च॑स॒ ओज॑से॒ तेज॑से स्व॒स्तये॑ सुभू॒तये॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम॒रुतः॑। मा॒। ग॒णैः। अ॒व॒न्तु॒। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नाय॑। आयु॑षे। वर्च॑से। ओज॑से। तेज॑से। स्व॒स्तये॑। सु॒ऽभू॒तये॑। स्वाहा॑ ॥४५.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुतो मा गणैरवन्तु प्राणायापानायुषे वर्चस ओजसे तेजसे स्वस्तये सुभूतये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठमरुतः। मा। गणैः। अवन्तु। प्राणाय। अपानाय। आयुषे। वर्चसे। ओजसे। तेजसे। स्वस्तये। सुऽभूतये। स्वाहा ॥४५.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(मरुतः) ऋत्विक् (गणैः) ऋत्विक्-समूहों द्वारा (मा) मेरी (अवन्तु) रक्षा करें। ताकि मैं (प्राणाय अपानाय....) आदि पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[मरुतः=ऋत्विङ्नाम (निघं० ३.१८)। गणैः=ऋत्विक्-समूह। भिन्न-भिन्न यज्ञों में ऋत्विक्-संख्या भिन्न-भिन्न नियत है। नियत संख्या वाले ऋत्विजों को “गण” कहा है। अथवा— मरुतः= शत्रुओं को मारने में कुशल सैनिक, “मारयीति मरुत्” (उणा० १.९४)। मरुतः अर्थात् मरुत्नामी सैनिक आक्रमण करने में महावेगी होते हैं—“मरुतः महद् द्रवन्ति वा” (निरु० ११.२.१३)। मरुतः सैनिक हैं—इसके लिए देखो (अथर्व० १९.१३.९,१०)। मन्त्र में राजा अपनी और प्रजा की रक्षा के लिए मरुद्गणों को चाहता है। मरुतः का अर्थ ऋत्विक् करने पर राजा अपनी और प्रजा की रक्षा के लिए, यज्ञानुष्ठानार्थ ऋत्विक् करने पर राजा को चाहता है। यज्ञों द्वारा रोगों का विनाश, वायु जल ओषधि अन्नों की परिपुष्टि, तथा स्वास्थ्य और दीर्घायु होती है।]