अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 5
आक्ष्वैकं॑ म॒णिमेकं॑ कृणुष्व स्ना॒ह्येके॒ना पि॒बैक॑मेषाम्। चतु॑र्वीरं नैरृ॒तेभ्य॑श्च॒तुर्भ्यो॒ ग्राह्या॑ ब॒न्धेभ्यः॒ परि॑ पात्व॒स्मान् ॥
स्वर सहित पद पाठआ। अ॒क्ष्व॒। एक॑म्। म॒णिम्। एक॑म्। कृ॒णु॒ष्व॒। स्ना॒हि। एके॑न। आ। पि॒ब॒। एक॑म्। ए॒षा॒म्। चतुः॑ऽवीरम्। नैः॒ऽऋ॒तेभ्यः॑। च॒तुःऽभ्यः॑। ग्राह्याः॑। ब॒न्धेभ्यः॑। परि॑। पा॒तु॒। अ॒स्मान् ॥४५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आक्ष्वैकं मणिमेकं कृणुष्व स्नाह्येकेना पिबैकमेषाम्। चतुर्वीरं नैरृतेभ्यश्चतुर्भ्यो ग्राह्या बन्धेभ्यः परि पात्वस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठआ। अक्ष्व। एकम्। मणिम्। एकम्। कृणुष्व। स्नाहि। एकेन। आ। पिब। एकम्। एषाम्। चतुःऽवीरम्। नैःऽऋतेभ्यः। चतुःऽभ्यः। ग्राह्याः। बन्धेभ्यः। परि। पातु। अस्मान् ॥४५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
हे राजन्! (एषाम्) इन चार प्रकार के सैनिक बलों के (चतुर्वीरम्) चार वीरों को, अर्थात् (एकम्) एक को (आक्ष्व) परकीय सेना में घुस कर उसमें व्याप्त हो जानेवाला (कृष्णुष्व) नियत कीजिए। (एकम्) और एक को (मणिम्) सर्वशिरोमणि रूप में नियत कीजिए। (एकेन) एक के द्वारा (स्नाहि) सैनिक शिविरों की शुद्धि और सफाई कराइए। (एकम्) तथा एक को (आ पिब) खानपान अर्थात् रसद का अधिष्ठाता नियत कीजिए। इस प्रकार (चतुर्भ्यः नैऋर्तेभ्यः) चार दिशाओं से आनेवाले कष्टों से, तथा (ग्राह्याः) शत्रु द्वारा निगृहीत होकर (बन्धेभ्यः) शत्रु के बन्धनों वा फन्दों से (अस्मान्) हमें (परि पातु) आप पूर्णतया सुरक्षित कीजिए।
टिप्पणी -
[आक्ष्व= आ+अक्षू व्याप्तौ। व्याप्तिः=विशेषतया शत्रु की सेना में पहुँचना प्राप्त होना। स्नाहि=ष्णा=स्ना शौचे।]