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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 58

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यज्ञः, मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यज्ञ सूक्त

    घृ॒तस्य॑ जू॒तिः सम॑ना सदे॑वा संवत्स॒रं ह॒विषा॑ व॒र्धय॑न्ती। श्रोत्रं॒ चक्षुः॑ प्रा॒णोऽच्छि॑न्नो नो अ॒स्त्वच्छि॑न्ना व॒यमायु॑षो॒ वर्च॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तस्य॑। जू॒तिः। सम॑ना। सऽदे॑वा। स॒म्ऽव॒त्स॒रम्। ह॒विषा॑। व॒र्धय॑न्ती। श्रोत्र॑म्। चक्षुः॑। प्रा॒णः। अच्छि॑न्नः। न॒। अ॒स्तु॒। अच्छि॑न्नाः। व॒यम्। आयु॑षः। वर्च॑सः ॥५८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतस्य जूतिः समना सदेवा संवत्सरं हविषा वर्धयन्ती। श्रोत्रं चक्षुः प्राणोऽच्छिन्नो नो अस्त्वच्छिन्ना वयमायुषो वर्चसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतस्य। जूतिः। समना। सऽदेवा। सम्ऽवत्सरम्। हविषा। वर्धयन्ती। श्रोत्रम्। चक्षुः। प्राणः। अच्छिन्नः। न। अस्तु। अच्छिन्नाः। वयम्। आयुषः। वर्चसः ॥५८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 58; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (समना) मननपूर्वक, तथा (सदेवाः) यज्ञवेत्ता विद्वानों के सहयोगपूर्वक (संवत्सरम्) वर्षभर सम्पादित (हविषा) हविः समेत (घृतस्य) घृत [की आहुतियों] का (जूतिः) वेग (संवत्सरम्) वर्षभर (वर्धयन्ती) वृद्धि करता रहता है। इस से (नः) हमारा (श्रोत्रम्) श्रवणसामर्थ्य (चक्षुः) चक्षुःसामर्थ्य (प्राणः) प्राण (अच्छिन्नः अस्तु) निरन्तर बना रहता है; और (वयम्) हम (आयुषः) आयु से (वर्चसः) तेज से (अच्छिन्नाः) वियुक्त नहीं होते।

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