अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - शान्तिः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - विराडुरोबृहती
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
शा॒न्ता द्यौः शा॒न्ता पृ॑थि॒वी शा॒न्तमि॒दमु॒र्वन्तरि॑क्षम्। शा॒न्ता उ॑द॒न्वती॒रापः॑ शा॒न्ता नः॑ स॒न्त्वोष॑धीः ॥
स्वर सहित पद पाठशा॒न्ता। द्यौः। शा॒न्ता। पृ॒थि॒वी। शा॒न्तम्। इ॒दम्। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। शा॒न्ताः। उ॒द॒न्वतीः॑। आपः॑। शा॒न्ताः। नः॒। स॒न्तु॒। ओष॑धीः ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शान्ता द्यौः शान्ता पृथिवी शान्तमिदमुर्वन्तरिक्षम्। शान्ता उदन्वतीरापः शान्ता नः सन्त्वोषधीः ॥
स्वर रहित पद पाठशान्ता। द्यौः। शान्ता। पृथिवी। शान्तम्। इदम्। उरु। अन्तरिक्षम्। शान्ताः। उदन्वतीः। आपः। शान्ताः। नः। सन्तु। ओषधीः ॥९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(नः) हमारे लिए (द्यौः) द्युलोक (शान्ता) शान्तिप्रद हो, (पृथिवी शान्ता) पृथिवी शान्ति-प्रद हो। (इदम्) यह (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (शान्तम्) शान्तिप्रद हो। (उदन्वतीः) प्रशस्त जलवाली (आपः) नदियाँ, समुद्र, तथा प्रशस्त जलवाले अन्तरिक्षव्यापी मेघ (शान्ताः) शान्तिप्रद हों। (ओषधीः) ओषधियाँ (शान्ताः सन्तु) शान्तिप्रद हों।
टिप्पणी -
[उदन्वतीः= प्राशस्त्ये मतुप्। आपः=नदियां; आप्लृ व्याप्तौ, अर्थात् अन्तरिक्षव्यापी मेघ, तथा समुद्रिय जल। उदन्वत्= समुद्र।]