अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
सूक्त - भरद्वाजः
देवता - द्यावापृथिवी, अन्तरिक्षम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
द्यावा॑पृथि॒वी उ॒र्व॑१न्तरि॑क्षं॒ क्षेत्र॑स्य॒ पत्न्यु॑रुगा॒योऽद्भु॑तः। उ॑ता॒न्तरि॑क्षमु॒रु वात॑गोपं॒ त इ॒ह त॑प्यन्तां॒ मयि॑ त॒प्यमा॑ने ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । क्षेत्र॑स्य । पत्नी॑ । उ॒रु॒ऽगा॒य: । अद्भु॑त: । उ॒त । अ॒न्तरि॑क्षम् । उ॒रु । वात॑ऽगोपम् । ते । इ॒ह । त॒प्य॒न्ता॒म् । मयि॑ । त॒प्यमा॑ने ॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावापृथिवी उर्व१न्तरिक्षं क्षेत्रस्य पत्न्युरुगायोऽद्भुतः। उतान्तरिक्षमुरु वातगोपं त इह तप्यन्तां मयि तप्यमाने ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावापृथिवी इति । उरु । अन्तरिक्षम् । क्षेत्रस्य । पत्नी । उरुऽगाय: । अद्भुत: । उत । अन्तरिक्षम् । उरु । वातऽगोपम् । ते । इह । तप्यन्ताम् । मयि । तप्यमाने ॥१२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इह) इस पृथिवी पर (मयि तप्यमाने) मेरे तपश्चर्या करते हुए, (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी लोक, (उरु अन्तरिक्षम्) विस्तृत अन्तरिक्ष, (क्षेत्रस्य पत्नी) संसार क्षेत्र की रक्षिका शक्ति [अग्नि, वायु, और सूर्य आदि,] (उरुगायः) महागीयमान (अद्भुतः) अद्भुत परमेश्वर, (उत) तथा (वातगोपम्) वायु द्वारा सुरक्षित या वायु का रक्षक (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (वे) वे सब (तप्यन्ताम्) तपश्चर्या करते हुए प्रतीत हों।
टिप्पणी -
[जैसे सुखी को सब संसार सुखमय और दुःखी को दुःखमय प्रतीत होता है, वैसे तपस्वी को संसार तपश्चर्या करता हुआ प्रतीत होता है। परमेश्वर भी उसे तपस्वी प्रतीत होता है, जो कि विश्राम किये बिना संसार की रचना और पालना करता रहता है। अन्तरिक्षपद दो बार पठित है। प्रथम पठित अन्तरिक्ष है संसारव्यापी महा अन्तरिक्ष, और द्वितीय अन्तरिक्ष सीमित है वहाँ तक, जितनी सीमा में वायु का निवास है, इसे "वातगोपम्" कहा है।