अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
सूक्त - चातनः
देवता - वनस्पतिः पृश्नपर्णी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पृश्नपर्णी सूक्त
शं नो॑ दे॒वी पृ॑श्निप॒र्ण्यशं॒ निरृ॑त्या अकः। उ॒ग्रा हि क॑ण्व॒जम्भ॑नी॒ ताम॑भक्षि॒ सह॑स्वतीम् ॥
स्वर सहित पद पाठशम् । न॒: । दे॒वी । पृ॒श्नि॒ऽप॒र्णी । अश॑म् । नि:ऽऋ॑त्यै । अ॒क॒: । उ॒ग्रा । हि । क॒ण्व॒ऽजम्भ॑नी । ताम् । अ॒भ॒क्षि॒ । सह॑स्वतीम् ॥२५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शं नो देवी पृश्निपर्ण्यशं निरृत्या अकः। उग्रा हि कण्वजम्भनी तामभक्षि सहस्वतीम् ॥
स्वर रहित पद पाठशम् । न: । देवी । पृश्निऽपर्णी । अशम् । नि:ऽऋत्यै । अक: । उग्रा । हि । कण्वऽजम्भनी । ताम् । अभक्षि । सहस्वतीम् ॥२५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(देवो) दिव्यगुणोंवाली (पृश्निपर्णी) चित्रपर्णोंवाली ओषधि ने (नः) हमें (शम् अकः) सुखी किया है, और (निर्ऋत्यै) कृच्छ्रापत्ति के लिए (अशम् ) दुःख किया है। (कण्वजम्भनी) कण्व का नाश करनेवाली (हि) निश्चय से (उग्रा) कण्व के विनाश करने में उग्ररूपा है। (ताम् ) उस (सहस्वतीम् ) रोगपराभव करनेवाली का (अभक्षि) मैंने भक्षण किया है, [या मैंने अनुलेपन आदि द्वारा सेवन किया है] (सायण)।
टिप्पणी -
[कण्वस्य पापस्य (सायण)। कण्व= कण सदृश सूक्ष्म रोग कीटाणु (germs)]