अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विश्वकर्मा सूक्त
य॒ज्ञस्य॒ चक्षुः॒ प्रभृ॑ति॒र्मुखं॑ च वा॒चा श्रोत्रे॑ण॒ मन॑सा जुहोमि। इ॒मं य॒ज्ञं वित॑तं वि॒श्वक॑र्म॒णा दे॒वा य॑न्तु सुमन॒स्यमा॑नाः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञस्य॑ । चक्षु: । प्रऽभृ॑ति: । मुख॑म् । च॒ । वा॒चा । श्रोत्रे॑ण । मन॑सा । जु॒हो॒मि॒ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । विऽत॑तम् । वि॒श्वऽक॑र्मणा । आ । दे॒वा: । य॒न्तु॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना: ॥३५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञस्य चक्षुः प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मनसा जुहोमि। इमं यज्ञं विततं विश्वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमानाः ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञस्य । चक्षु: । प्रऽभृति: । मुखम् । च । वाचा । श्रोत्रेण । मनसा । जुहोमि । इमम् । यज्ञम् । विऽततम् । विश्वऽकर्मणा । आ । देवा: । यन्तु । सुऽमनस्यमाना: ॥३५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(यज्ञस्य) संसार-यज्ञ के (चक्षुः) चक्षुवत् ज्ञापक अर्थात् प्रकाशक, (प्रभृतिः) प्रकर्षेण भरण-पोषण करनेवाले, (मुखम् च) और प्रवक्ता को, (वाचा, श्रोत्रेण, मनसा) स्तुतिवचन द्वारा, श्रवण और मनन द्वारा (जुहोमि) मैं आत्मसमर्पण करता हूँ। (विश्वकर्मणा) विश्व-के-कर्ता द्वारा (विततम्) विस्तारित (इमम् यज्ञम्) इस संसार-यज्ञ में (देवाः) देवकोटि के मुक्तात्मा (सुमनस्यमानाः) प्रसन्नमनपूर्वक (आ यन्तु१) आएं, अर्थात् मोक्षकाल की समाप्ति के पश्चात् इस यज्ञ में आएँ।]
टिप्पणी -
[१. मुक्ति से लौटकर पुनः संसार में जन्म लेना, यह वैदिक सिद्धान्त है। ऋषि दयानन्द ने इस वैदिक सिद्धान्त को माना। यथा "कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। को नो महा अदितये पुनर्दात् पितरं च दुषोयं मातरं च"। (ऋ० १।२४।१) के अनुसार ऋषि ने मुक्ति से लोटकर जीवात्मा के पुन: माता पिता के दर्शन करने का कथन किया है। तथा "ये मुक्तजीव मुक्ति को प्राप्त होके ब्रह्म में आनन्द का तब तक भोग के पुनः महाकल्प के पश्चात् मुक्तिमुख को छोड़कर संसार में आते हैं" (मुण्डकोपनिषद् ३।२।६) के आधार पर। तथा "प्रथम तो जीव का सामर्थ्य शरीरादि पदार्थ और साधन परिमित है, पुनः उसका फल अनन्त कैसे हो सकता है। अनन्त आनन्द के भोगने का असीम सामर्थ्य कर्म और साधन जीव में नहीं। जिनके साधन अनित्य उनका फल नित्य कभी नहीं हो सकता। और जो मुक्ति में से कोई भी लौटकर जीव इस संसार में न आवे, तो संसार का उच्छेद अर्थात् जीव नि:शेष हो जाने चाहिये" (इत्यादिः)। सत्यार्थप्रकाश नवम समुल्लास, सन्दर्भ "मुक्ति से पुनरावृत्ति"।]