अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
आ क्र॑न्दय धनपते व॒रमाम॑नसं कृणु। सर्वं॑ प्रदक्षि॒णं कृ॑णु॒ यो व॒रः प्र॑तिका॒म्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । क्र॒न्द॒य॒ । ध॒न॒ऽप॒ते॒ । व॒रम् । आऽम॑नसम् । कृ॒णु॒ । सर्व॑म् । प्र॒ऽद॒क्षि॒णम् । कृ॒णु॒ । य: । व॒र: । प्र॒ति॒ऽका॒म्य᳡: ॥३६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
आ क्रन्दय धनपते वरमामनसं कृणु। सर्वं प्रदक्षिणं कृणु यो वरः प्रतिकाम्यः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । क्रन्दय । धनऽपते । वरम् । आऽमनसम् । कृणु । सर्वम् । प्रऽदक्षिणम् । कृणु । य: । वर: । प्रतिऽकाम्य: ॥३६.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(धनपते) हे धन के पति ! [कन्या के पिता !] (आ क्रन्दय) [वर का] तू आह्वान कर, (वरम्) वर को (आमनसम्) कन्या के अभिमुख मन वाला (कृणु) कर। (प्रदक्षिणम् ) प्रवृद्धिकारक (सर्वम् ) सब धन को ,(कृणु) तू प्रदान कर [उसे ], (यः) जो (वरः) वर ( प्रतिकाम्यः ) प्रत्येक सम्बन्धी को काम्य है, अभीष्ट है। क्रन्दय = क्रदि आह्वाने (भ्वादिः)।
टिप्पणी -
[प्र दक्षिणम् = प्र+ दक्ष वृद्धौ, तत्सम्बन्धी धन, जो कि कन्या के पिता ने विवाह में वर को देना है, जो कि गृहस्थ धर्मों की वृद्धि करे। गृहस्थ में पञ्चमहायज्ञ आदि गृहस्थ-धर्म करने होते हैं, यह प्रदत्त धन धर्म-कर्मों के करने में सहायक होगा।]