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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 104

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 104/ मन्त्र 1
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-१०४

    इ॒मा उ॑ त्वा पुरूवसो॒ गिरो॑ वर्धन्तु॒ या मम॑। पा॑व॒कव॑र्णाः॒ शुच॑यो विप॒श्चितो॒ऽभि स्तोमै॑रनूषत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मा: । ऊं॒ इति॑ । त्वा॒ । पु॒रु॒व॒सो॒ इति॑ पुरुऽवसो । गिर॑: । व॒र्ध॒न्तु॒ । या । मम॑ । पा॒व॒कऽव॑र्णा: । शुच॑य: । वि॒प॒:ऽचित॑: । अ॒भि। स्तोमै॑: । अ॒नू॒ष॒त॒ ॥१०४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा उ त्वा पुरूवसो गिरो वर्धन्तु या मम। पावकवर्णाः शुचयो विपश्चितोऽभि स्तोमैरनूषत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमा: । ऊं इति । त्वा । पुरुवसो इति पुरुऽवसो । गिर: । वर्धन्तु । या । मम । पावकऽवर्णा: । शुचय: । विप:ऽचित: । अभि। स्तोमै: । अनूषत ॥१०४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 104; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (पुरूवसो) हे महासम्पत्शाली, या पालन करनेवाले, तथा सम्पत्तियों से परिपूर्ण संसार में बसे हुए परमेश्वर! (इमाः) ये (याः) जो (मम) मेरी (गिरः) वाणियाँ हैं, वे (त्वा उ) आपकी ही महिमा को (वर्धन्तु) बढ़ाया करें। (पावकवर्णाः) पवित्र करनेवाले आपका सदा वर्णन करनेवाले, प्रवचन करनेवाले, (शुचयः) शरीर, इन्द्रियों, मन और आत्मा से पवित्र, (विपश्चितः) मेधावी विद्वान् उपासक, (अभि) साक्षात् रूप में (स्तोमैः) स्तुति-मन्त्रों द्वारा (त्वा अनूषत) आपकी ही स्तुतियाँ करते रहते हैं।

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