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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 104/ मन्त्र 3
आ नो॒ विश्वा॑सु॒ हव्य॒ इन्द्रः॑ स॒मत्सु॑ भूषतु। उप॒ ब्रह्मा॑णि॒ सव॑नानि वृत्र॒हा प॑रम॒ज्या ऋची॑षमः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । न॒: । विश्वा॑सु । हव्य॑: । इन्द्र॑: । स॒मत्ऽसु॑ । भू॒ष॒तु॒ । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । सव॑नानि । वृ॒त्र॒ऽहा । प॒र॒म॒ऽज्या: । ऋची॑षम् ॥१०४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो विश्वासु हव्य इन्द्रः समत्सु भूषतु। उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहा परमज्या ऋचीषमः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । न: । विश्वासु । हव्य: । इन्द्र: । समत्ऽसु । भूषतु । उप । ब्रह्माणि । सवनानि । वृत्रऽहा । परमऽज्या: । ऋचीषम् ॥१०४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 104; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(नः) हम उपासकों के (विश्वासु समत्सु) सब देवासुर-संग्रामों में (हव्यः) सहायतार्थ पुकारा गया (इन्द्रः) परमेश्वर, (आ भूषतु) आसुरभावनाओं के पराभव द्वारा हमें विभूषित करे। (वृत्रहा) पाप-वृत्रों का हनन करनेवाला परमेश्वर, (ब्रह्माणि) हमारे ब्रह्मस्तावक स्तोत्रों, और (सवनानि) हमारे भक्तिरसमय यज्ञों में, (उप) हमारे समीपस्थ हो जाए। (परमज्या) पापों के विनाश के लिए उसकी धनुष्-डोरी सर्वोत्कृष्ट है, (ऋचीषमः) उसका ऋचाओं में समरूप से वर्णन हुआ है।