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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-११

    इन्द्र॒स्तुजो॑ ब॒र्हणा॒ आ वि॑वेश नृ॒वद्दधा॑नो॒ नर्या॑ पु॒रूणि॑। अचे॑तय॒द्धिय॑ इ॒मा ज॑रि॒त्रे प्रेमं वर्ण॑मतिरच्छु॒क्रमा॑साम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । तुज॑: । ब॒र्हणा॑: । आ । वि॒वे॒श॒ । नृ॒ऽवत् । दधा॑न: । नर्या॑ । पु॒रूण‍ि॑ ॥ अचे॑तयत् । धिय॑: । इ॒मा: । ज॒रि॒त्रे । प्र । इ॒मम् । वर्ण॑म् । अ॒ति॒र॒त् । शु॒क्रम् । आ॒सा॒म् ॥११.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्तुजो बर्हणा आ विवेश नृवद्दधानो नर्या पुरूणि। अचेतयद्धिय इमा जरित्रे प्रेमं वर्णमतिरच्छुक्रमासाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । तुज: । बर्हणा: । आ । विवेश । नृऽवत् । दधान: । नर्या । पुरूण‍ि ॥ अचेतयत् । धिय: । इमा: । जरित्रे । प्र । इमम् । वर्णम् । अतिरत् । शुक्रम् । आसाम् ॥११.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 5

    भाषार्थ -
    (इन्द्रः) परमेश्वर (तुजः) उपासक-पुत्र की (बर्हणा) अविद्याविनाशिनी शक्ति के कारण उसके हृदय में (आ विवेश) प्रवेश पाता है। वह (नर्या) नरहितकारी (पुरूणि) प्रभूत सामग्री (दधानः) धारण किये हुए है, (नृवत्) जैसे कि कोई श्रेष्ठ नर परोपकारार्थ प्रभूत सामग्री धारण करता है। (जरित्रे) स्तोता के लिए परमेश्वर (इमाः धियः) इन सात्विक बुद्धियों को (अचेतयत्) जागरित करता है, और (आसाम्) इन बुद्धियों के (इमम्) इस (शुक्रं वर्णम्) सात्विक विशुद्ध स्वरूप को (अतिरत्) बढ़ाता है।

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