अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
इन्द्र॒स्तुजो॑ ब॒र्हणा॒ आ वि॑वेश नृ॒वद्दधा॑नो॒ नर्या॑ पु॒रूणि॑। अचे॑तय॒द्धिय॑ इ॒मा ज॑रि॒त्रे प्रेमं वर्ण॑मतिरच्छु॒क्रमा॑साम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । तुज॑: । ब॒र्हणा॑: । आ । वि॒वे॒श॒ । नृ॒ऽवत् । दधा॑न: । नर्या॑ । पु॒रूणि॑ ॥ अचे॑तयत् । धिय॑: । इ॒मा: । ज॒रि॒त्रे । प्र । इ॒मम् । वर्ण॑म् । अ॒ति॒र॒त् । शु॒क्रम् । आ॒सा॒म् ॥११.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्तुजो बर्हणा आ विवेश नृवद्दधानो नर्या पुरूणि। अचेतयद्धिय इमा जरित्रे प्रेमं वर्णमतिरच्छुक्रमासाम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । तुज: । बर्हणा: । आ । विवेश । नृऽवत् । दधान: । नर्या । पुरूणि ॥ अचेतयत् । धिय: । इमा: । जरित्रे । प्र । इमम् । वर्णम् । अतिरत् । शुक्रम् । आसाम् ॥११.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(नृवत्) नरों [नेताओं के समान] (पुरूणि) बहुत से (नर्या) नरों के योग्य कर्मों को (दधानः) धारण करते हुए (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी राजा] ने (बर्हणाः) बढ़ती हुई (तुजः) सतानेवाली सेनाओं में (आ विवेश) प्रवेश किया। (इमाः) इन (धियः) बुद्धियों को (जरित्रे) स्तुति करनेवाले के लिये (अचेतयत्) चेताया, और (आसाम्) इन [प्रजाओं] के बीच (इमम्) इस (शुक्रम्) शुद्ध (वर्णम्) स्वीकार करने योग्य यश को (प्र अतिरत्) बढ़ाया ॥॥
भावार्थ
जो शूर सेनापति आगे बढ़ती हुई शत्रुसेना में घुसकर सङ्ग्राम जीतता है, वही संसार में कीर्ति पाता है ॥॥
टिप्पणी
−(इन्द्रः) महाप्रतापी राजा (तुजः) तुज हिंसायाम्-क्विप्। हिंसिकाः शत्रुसेनाः (बर्हणाः) बृहि वृद्धौ-युच्। वर्धमानाः (आ विवेश) प्रविष्टवान् (नृवत्) नेतृवत् (दधानः) धारयन् (नर्या) तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। नरवत् नरयोग्यानि कर्माणि (पुरूणि) बहूनि (अचेतयत्) अज्ञापयत् (धियः) ध्यै चिन्तायाम्-क्विप्। प्रज्ञाः (जरित्रे) स्तोत्रे (इमम्) वर्णम्) स्वीकरणीयं यशः (प्र अतिरत्) प्रावर्धयत् (शुक्रम्) शुद्धम् (आसाम्) प्रजानां मध्ये ॥
विषय
वासना-विनाश व बुद्धिदीपन
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावक प्रभु (बर्हणा:) = अभिवृद्ध-बढ़ी हुई (तुज:) = हिंसक शत्रुसेनाओं में (आविवेश) = ऐसे प्रविष्ट होते हैं, (नवृत) = जैसकि एक सेनानी शत्रु-सेनाओं में युद्ध के लिए प्रवेश करता है, अर्थात् प्रभु ही हमारे शत्रुओं का विनाश करते हैं। ये प्रभु (पुरूणि) = बहुत (नर्या) = नरहितकारी कार्यों को (दभान:) = धारण करते हैं। २. ये प्रभु (जरित्रे) = स्तोता के लिए (इमाः धियः) = इन युद्धियों को (अचेतयत्) = चेतनायुक्त करते हैं तथा (आसाम्) = इनके (इमं शुक्रं वर्णम्) = दीप्त रूप को प्रातिरत् बढ़ाते हैं।
भावार्थ
प्रभु हमारे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करते हैं और हमारी बुद्धियों को चेताते हुए उन्हें दीसरूप बनाते हैं।
भाषार्थ
(इन्द्रः) परमेश्वर (तुजः) उपासक-पुत्र की (बर्हणा) अविद्याविनाशिनी शक्ति के कारण उसके हृदय में (आ विवेश) प्रवेश पाता है। वह (नर्या) नरहितकारी (पुरूणि) प्रभूत सामग्री (दधानः) धारण किये हुए है, (नृवत्) जैसे कि कोई श्रेष्ठ नर परोपकारार्थ प्रभूत सामग्री धारण करता है। (जरित्रे) स्तोता के लिए परमेश्वर (इमाः धियः) इन सात्विक बुद्धियों को (अचेतयत्) जागरित करता है, और (आसाम्) इन बुद्धियों के (इमम्) इस (शुक्रं वर्णम्) सात्विक विशुद्ध स्वरूप को (अतिरत्) बढ़ाता है।
टिप्पणी
[तुजः, तुक्=अपत्य (निघं০ २.२)। बर्हणा=बर्ह हिंसायाम्। अतिरत्=तिरते वर्धयते (निरु০ ११.१.६)।]
विषय
परमेश्वर और राजा।
भावार्थ
(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (नृवत्) जिस प्रकार नेता सेनापति (पुरुणि नर्या दधानः) बहुत से अपने सैनिक पुरुषों के योग्य हितकारी पदार्थों को धारण करता है। अथवा—(नृवत्) मनुष्य, जीव जिस प्रकार (नर्या) जीव के अपने उपयोगी (पुरुष) इन्द्रियों को धारण करता है उसी प्रकार वह परमेश्वर (नृवत्) महान् नेता के समान या महान् पुरुष के समान (नर्या) नृ=जीवों के बसने और कर्मफल भोगने योग्य उनके हितकारी (पुरुणि) पालन सामर्थ्यों या लोकों को स्वयं (दधानः) धारण करता हुआ स्वयं (तुजः) वेगवती, प्रेरक या छेदक, भेदकं (बर्हणाः) महती शक्तियों में (आ विवेश) आविष्ट है। और वह (जरित्रे) स्तुति करने हारे पुरुष की या रात्रि के जरण करने वाले सूर्य की (इमा धियः) इन नाना धारण शक्तियों को (अचेतयत्) चेतन करता है, उनको प्रयुक्त करता है। और (आसाम्) इनके (शुक्रम् वर्णम्) कान्तिमय शुद्ध स्वरूप को (प्र अतिरत्) बढ़ाता है। राजा के पक्ष में—वह (तुजः) बलवान् शत्रु नाशक राजा के समान सब प्रजा के (नर्या) मानव संघों या ऐश्वर्यों को धारण करता हुआ वृद्धिशील प्रजाओं में प्रविष्ट होता है। (जरित्रे) विद्वान् पुरुषों को उनके (धियः) समस्त कर्म बतलाता है। (आसाम्) इन प्रजाओं के (शुक्रम् वर्णम्) शुद्ध निष्पाप स्वरूप को बढ़ाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Indra, like a manly hero, commanding, overwhelming, the forces of battle, blazing with the mighty thunderbolt, breaks through the thick of enemy lines. He enlightens these thoughts and minds for the celebrant and augments this pure and unsullied light of these within.
Translation
Like the leader of people this mighty fire possessing many leading qualities pierce of substance into increasing obstructive forces. This fire ( when enkindled in Yajna Vedi) becames the means of enlivening the intellect and acts of the pronouncers of the mantras and increases this pure resplendent colour of dawn and days.
Translation
Like the leader of people this mighty fire possessing many leading qualities pierce of substance into increasing obstructive forces. This fire (when enkindled in Yajna Vedi) becames the means of enlivening the intellect and acts of the pronouncers of the mantras and increases this pure resplendent color of dawn and days.
Translation
Just as the chief commander of the army provides numerous things for the comfort and protection of his men, so does the Almighty God, by His All-moving Powers, maintains many spheres, fit for the abode of men, and pervades them all. He inspires all these thinking powers and actions of the worshipper and enhances the pure form thereof.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(इन्द्रः) महाप्रतापी राजा (तुजः) तुज हिंसायाम्-क्विप्। हिंसिकाः शत्रुसेनाः (बर्हणाः) बृहि वृद्धौ-युच्। वर्धमानाः (आ विवेश) प्रविष्टवान् (नृवत्) नेतृवत् (दधानः) धारयन् (नर्या) तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। नरवत् नरयोग्यानि कर्माणि (पुरूणि) बहूनि (अचेतयत्) अज्ञापयत् (धियः) ध्यै चिन्तायाम्-क्विप्। प्रज्ञाः (जरित्रे) स्तोत्रे (इमम्) वर्णम्) स्वीकरणीयं यशः (प्र अतिरत्) प्रावर्धयत् (शुक्रम्) शुद्धम् (आसाम्) प्रजानां मध्ये ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(নৃবৎ) নর [নেতার সমান] (পুরূণি) বহু (নর্যা) নরযোগ্য কর্ম (দধানঃ) ধারণ করে (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী রাজা] ই (বর্হণাঃ) বৃদ্ধিপ্রাপ্ত/বর্ধিত হয়ে (তুজঃ) নিপীড়নকারী/হিংসক সেনাদের মধ্যে (আ বিবেশ) প্রবেশ করেছে। (ইমাঃ) এই (ধিয়ঃ) বুদ্ধি (জরিত্রে) প্রশংসাকারীর/স্তোতার জন্য (অচেতয়ৎ) জ্ঞাপন করেছে, এবং (আসাম্) তাঁদের [প্রজাদের] মাঝে (ইমম্) এই (শুক্রম্) শুদ্ধ (বর্ণম্) স্বীকারযোগ্য যশ (প্র অতিরৎ) বৃদ্ধি করেছে॥৫॥
भावार्थ
যে বীর সেনাপতি অগ্রসরমান শত্রুসেনার মধ্যে প্রবেশ করে যুদ্ধে জয়লাভ করে, সে বিশ্বে খ্যাতি/কীর্তি প্রাপ্ত হয় ॥৫॥
भाषार्थ
(ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (তুজঃ) উপাসক-পুত্রের (বর্হণা) অবিদ্যাবিনাশিনী শক্তির কারণে তাঁর হৃদয়ে (আ বিবেশ) প্রবেশ পান/করেন। তিনি (নর্যা) নরহিতকারী (পুরূণি) প্রভূত সামগ্রী (দধানঃ) ধারণ করে আছেন, (নৃবৎ) যেমন কোনো শ্রেষ্ঠ নর পরোপকারার্থে প্রভূত সামগ্রী ধারণ করে। (জরিত্রে) স্তোতার জন্য পরমেশ্বর (ইমাঃ ধিয়ঃ) এই সাত্ত্বিক বুদ্ধি (অচেতয়ৎ) জাগরিত করেন, এবং (আসাম্) এই বুদ্ধির (ইমম্) এই (শুক্রং বর্ণম্) সাত্ত্বিক বিশুদ্ধ স্বরূপ (অতিরৎ) বর্ধিত করেন।
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