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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-११
    44

    यु॒धेन्द्रो॑ म॒ह्ना वरि॑वश्चकार दे॒वेभ्यः॒ सत्प॑तिश्चर्षणि॒प्राः। वि॒वस्व॑तः॒ सद॑ने अस्य॒ तानि॒ विप्रा॑ उ॒क्थेभिः॑ क॒वयो॑ गृणन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒धा । इन्द्र॑: । म॒हा । वरि॑व: । च॒का॒र॒ । दे॒वेभ्य॑: । सत्ऽप॑ति: । च॒र्ष॒णि॒ऽप्रा: ॥ वि॒वस्व॑त: । सद॑ने । अ॒स्य॒ । तानि॑ । विप्रा॑: । उ॒क्थेभि॑: । क॒वय॑: । गृ॒ण॒न्ति॒ ॥११.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युधेन्द्रो मह्ना वरिवश्चकार देवेभ्यः सत्पतिश्चर्षणिप्राः। विवस्वतः सदने अस्य तानि विप्रा उक्थेभिः कवयो गृणन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युधा । इन्द्र: । महा । वरिव: । चकार । देवेभ्य: । सत्ऽपति: । चर्षणिऽप्रा: ॥ विवस्वत: । सदने । अस्य । तानि । विप्रा: । उक्थेभि: । कवय: । गृणन्ति ॥११.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (सत्पतिः) सत्पुरुषों के पालनेवाले, (चर्षणिप्राः) मनुष्यों के मनोरथ पूरण करनेवाले (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी पुरुष] ने (युधा) युद्ध के साथ (मह्ना) अपनी महिमा से (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (वरिवः) सेवनीय धन (चकार) किया है। (विवस्वतः) विविध निवासोंवाले [धनी मनुष्य] के (सदने) घर में (अस्य) इस [पुरुष] के (तानि) उन [कर्मों] को (विप्राः) बुद्धिमान् (कवयः) ज्ञानी पुरुष (उक्थेभिः) अपने वचनों से (गृणन्ति) सराहते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परोपकारी होकर बड़े कष्ट उठाकर सत्पुरुषों का पालन करते हैं, वे ही संसार में बड़े गिने जाते और कीर्तिमान् होते हैं ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(युधा) युद्धेन (इन्द्रः) महातेजस्वी पुरुषः (मह्ना) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। मह पूजायाम्-नप्रत्ययः। महिम्ना (वरिवः) वृञ् वरणे यङ्लुकि, असुन्। ऋतश्च। पा० ७।४।९२। अभ्यासस्य रिगागमः, टिलोपः। वरिवो धननाम-निघ० २।१०। वरणीयं धनम् (चकार) उत्पादयामास (देवेभ्यः) विदुषामर्थम् (सत्पतिः) सतां पालकः (चर्षणिप्राः) प्रा पूरणे-विच्। मनुष्याणां मनोरथपूरकः (विवस्वतः) वि+वस निवासे-क्विप्, मतुप्। विवस्वन्तो मनुष्यनाम-निघ० २।३। बहुनिवासयुक्तस्य धनिनः पुरुषस्य (सदने) गृहे (अस्य) इन्द्रस्य (तानि) प्रसिद्धानि कर्माणि (विप्राः) मेधाविनः (उक्थेभिः) स्ववचनैः (कवयः) विद्वांसः (गृणन्ति) स्तुवन्ति ॥

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    विषय

    युधा देवेभ्यः वरिवः चकार

    पदार्थ

    २. (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु युधा युद्ध के द्वारा आसुरवृत्तियों को युद्ध में विनष्ट करने के द्वारा (मह्ना) = अपनी महिमा से (देवेभ्य:) = देववृत्तिवाले पुरुषों के लिए (वरिवः) = वरणीय धन को (चकार) = सम्पादित करते हैं। प्रभु (सत्पतिः) = सज्जनों के रक्षक हैं। (चर्षणिना:) = श्रमशील मनुष्यों की कामनाओं को [प्रा पूरणे] पूर्ण करनेवाले हैं। २. (विवस्वत:) = विशेषेण अग्निहोत्र आदि कर्मों के लिए निवास करते हुए यजमान के (सदने) = घर में (विप्रा:) = मेधावी (कवयः) = क्रान्तप्रज्ञ ज्ञानी पुरुष (अस्य) = इस इन्द्र के (तानि) = उन प्रसिद्ध वृत्रवध आदि कर्मों को (उक्थेभि:) = स्तोत्रों के द्वारा गृणन्ति उच्चरित करते हैं। ये ज्ञानी यज्ञशील पुरुषों के गृह में सम्मिलित होकर प्रभु के गुणों का गायन करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु आसुरवृत्तियों को विनष्ट करके देवों के लिए वरणीय धन प्राप्त कराते हैं। यज्ञशील पुरुष के घर में एकत्र होकर ज्ञानी लोग प्रभु की महिमा का गायन करते हैं।

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    भाषार्थ

    (सत्पतिः) सच्चे-रक्षक और (चर्षणिप्राः) प्रजाजनों को सुखों से भरपूर करनेवाले परमेश्वर ने (मह्ना युधा) आसुर शक्तियों के साथ महायुद्ध द्वारा (देवेभ्यः) दिव्य-उपासकों के लिए (वरिवः) वरणीय मोक्षधन (चकार) प्रकट कर दिया है। (विवस्वतः) सूर्य के (सदने) सदन अर्थात् इस पृथिवी पर, वा—(विवस्वतः) अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले परमेश्वर के हृदय-सदन में ध्यान लगाये (विप्राः कवयः) मेधावी-कवि उपासक (अस्य) इस परमेश्वर के (तानि) उन सत्कर्मों का (उक्थेभिः) सूक्तों द्वारा (गृणन्ति) स्तवन करते हैं।

    टिप्पणी

    [वरिवः=धन (निघं০ २.१०)।]

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    विषय

    परमेश्वर और राजा।

    भावार्थ

    (सत्-पतिः) सत्पुरुषों का पालक, (चर्षणिप्राः) समस्त मनुष्यों की कामनाएं पूर्ण करने में समर्थ, (इन्द्रः) इन्द्र, परमेश्वर (युधा) युद्ध द्वारा जिस प्रकार राजा धन उत्पन्न करता उसी प्रकार (युधा) अपने समस्त विश्व के प्रेरक अथवा दुष्टों को प्रहार करने वाले (मह्ना) महान् सामर्थ्य से (देवेभ्यः) समस्त दिव्य पदार्थों, विद्वानों, सत्पुरुषों के लिये (वरिवः चकार) सर्वोत्तम ऐश्वर्य उत्पन्न करता और उनको प्रदान करता है। (विवस्वतः अस्य) विविध ऐश्वर्यों से सम्पन्न सूर्य के समान तेजस्वी, इसके (सदने) शरण में, सुखरूप आश्रय में आये हुए (विप्राः) विद्वान् ज्ञानी (कवयः) क्रान्तदर्शी पुरुष (उक्थेभिः) नाना वेदमन्त्ररूप स्तुति वचनों से (तानि) उसके उन उन नाना कर्मों का (गृणन्ति) उपदेश करते हैं। राजा के पक्ष में—सज्जनों का पालक, प्रजा के ऐश्वर्यवर्धक राजा युद्ध द्वारा भी देवों, विजिगीषु विद्वानों के लिये बहुत धनैश्वर्य उत्पन्न करता है। उस सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष को विद्वान्जन वेद-वचनों द्वारा नाना उपदेश करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra, lover and favourite of humanity, protector and promoter of truth, reality and the good people, with his fight and force of strength and intelligence does great good deeds for the noble powers of nature and humanity. And those great exploits of his, brilliant poets and scholars celebrate with their songs of homage, the waves and echoes of which rise and resound in the house of the sun.

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    Translation

    This mighty fire which is the preserver of existing things and the protector seeing creatures with its all pervading might gives excellent power to the wonderous natural forces. These functions of the fire in the place of sun are praised by the learned with praising songs.

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    Translation

    This mighty fire which is the preserver of existing things and the protector seeing creatures with its all pervading might gives-excellent power to the wondrous natural forces. These functions of the fire in the place of sun ate praised by the learned with praising songs.

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    Translation

    The Mighty God, Who is the Lord of the virtuous and the Fulfiller of the desires of men, creates many good things and qualities for the divine beings and forces by His evil-quelling might. Under the shelter of this Radiant God shining like the sun, the wise sages preach those divine qualities through the Veda-mantras.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(युधा) युद्धेन (इन्द्रः) महातेजस्वी पुरुषः (मह्ना) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। मह पूजायाम्-नप्रत्ययः। महिम्ना (वरिवः) वृञ् वरणे यङ्लुकि, असुन्। ऋतश्च। पा० ७।४।९२। अभ्यासस्य रिगागमः, टिलोपः। वरिवो धननाम-निघ० २।१०। वरणीयं धनम् (चकार) उत्पादयामास (देवेभ्यः) विदुषामर्थम् (सत्पतिः) सतां पालकः (चर्षणिप्राः) प्रा पूरणे-विच्। मनुष्याणां मनोरथपूरकः (विवस्वतः) वि+वस निवासे-क्विप्, मतुप्। विवस्वन्तो मनुष्यनाम-निघ० २।३। बहुनिवासयुक्तस्य धनिनः पुरुषस्य (सदने) गृहे (अस्य) इन्द्रस्य (तानि) प्रसिद्धानि कर्माणि (विप्राः) मेधाविनः (उक्थेभिः) स्ववचनैः (कवयः) विद्वांसः (गृणन्ति) स्तुवन्ति ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সৎপতিঃ) সৎপুরুষদের পালক/পালনকারী, (চর্ষণিপ্রাঃ) মানুষ্যদের মনোরথ পূরণকারী (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী পুরুষ] (যুধা) যুদ্ধ দ্বারা (মহ্না) নিজ মহিমায় (দেবেভ্যঃ) বিদ্বানের জন্য (বরিবঃ) উপকারী সম্পদ (চকার) প্রাপ্ত করে। (বিবস্বতঃ) বিবিধ বাসস্থান সমৃদ্ধ [ধনী মানুষের] (সদনে) ঘরে (অস্য) সে [পুরুষ] (তানি) তার [কর্ম] (বিপ্রাঃ) বুদ্ধিমান (কবয়ঃ) জ্ঞানী পুরুষরা (উক্থেভিঃ) নিজ বচনের দ্বারা (গৃণন্তি) প্রশংসিত হয় ॥৭॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য পরোপকারী হয়ে কষ্ট সহ্য করে সৎপুরুষদের পালন করে, সে সংসারে গণ্য হয় এবং কীর্তিমান্ হয়॥৭॥

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    भाषार्थ

    (সৎপতিঃ) সত্য-রক্ষক এবং (চর্ষণিপ্রাঃ) প্রজাদের সুখ দ্বারা পূরণকারী পরমেশ্বর (মহ্না যুধা) আসুরিক শক্তির সাথে মহাযুদ্ধ দ্বারা (দেবেভ্যঃ) দিব্য-উপাসকদের জন্য (বরিবঃ) বরণীয় মোক্ষধন (চকার) প্রকট করেছেন। (বিবস্বতঃ) সূর্যের (সদনে) সদন অর্থাৎ এই পৃথিবীতে, বা—(বিবস্বতঃ) অজ্ঞানান্ধকার দূরীভূতকারী পরমেশ্বরের হৃদয়-সদনে ধ্যানমগ্ন (বিপ্রাঃ কবয়ঃ) মেধাবী-কবি উপাসক (অস্য) এই পরমেশ্বরের (তানি) সেই সৎকর্ম-সমূহের (উক্থেভিঃ) সূক্ত-সমূহ দ্বারা (গৃণন্তি) স্তবন/স্তুতি করে।

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