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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-११
    45

    इन्द्र॒ ओष॑धीरसनो॒दहा॑नि॒ वन॒स्पतीँ॑रसनोद॒न्तरि॑क्षम्। बि॒भेद॑ व॒लं नु॑नु॒दे विवा॒चोऽथा॑भवद्दमि॒ताभिक्र॑तूनाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । ओष॑धी: । अ॒स॒नो॒त् । अहा॑नि । वन॒स्पती॑न् । अ॒स॒नो॒त् । अ॒न्तरि॑क्षम् ॥ बि॒भेद॑ । ब॒लम् । नु॒नु॒दे । विऽवा॑च: । अथ॑ । अ॒भ॒व॒त् । द॒मि॒ता । अ॒भिऽक्र॑तूनाम् ॥११.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र ओषधीरसनोदहानि वनस्पतीँरसनोदन्तरिक्षम्। बिभेद वलं नुनुदे विवाचोऽथाभवद्दमिताभिक्रतूनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । ओषधी: । असनोत् । अहानि । वनस्पतीन् । असनोत् । अन्तरिक्षम् ॥ बिभेद । बलम् । नुनुदे । विऽवाच: । अथ । अभवत् । दमिता । अभिऽक्रतूनाम् ॥११.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी पुरुष] ने (अहानि) दिनों को और (ओषधीः) ओषधियों [सोम अन्न आदि] को (असनोत्) सेवा है, (वनस्पतीन्) वनस्पतियों [पीपल आदि] और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (असनोत्) सेवा है। उससे (वलम्) घेरनेवाले शत्रु को (बिभेद) छिन्न-भिन्न किया और (विवाचः) विरुद्ध बोलनेवालों को (नुनुदे) निकाल दिया (अथ) फिर (अभिक्रतूनाम्) विरुद्ध कर्मवालों [अभिमानों दुष्टों] का (दमिता) दमन करनेवाला (अभवत्) हुआ है ॥१०॥

    भावार्थ

    राजा को योग्य है कि सदा समय पर ध्यान रखकर पृथिवी और आकाश के पदार्थों को उपयोगी करके विरोधी दुष्टों को निकाल देवे ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(इन्द्रः) महाप्रतापी पुरुषः (ओषधीः) सोमान्नादिपदार्थान् (असनोत्) षण संभक्तौ-लङ्। सेवितवान् (अहानि) दिनानि (वनस्पतीन्) पिप्पलादिवृक्षान् (असनोत्) सेवितवान् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (बिभेद) भिन्नवान् (वलम्) वल संवरणे-अच्। आवरकं दैत्यम् (नुनुदे) णुद प्रेरणे-लिट्। निराचकार (विवाचः) विरुद्धवाग्युक्तान् (अथ) अपि च (अभवत्) (दमिता) दमु उपशमे-तृच्। नियन्ता (अभिक्रतूनाम्) अभि आभिमुख्येन क्रतवः कर्माणि येषां तेषाम्। विरुद्धकर्मणाम्। अभिमानिनां दुष्टानाम् ॥

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    विषय

    'वल, विवान् व अभिक्रतु' का निराकरण

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (ओषधी:) = व्रीहि-यव आदि ओषधियों को (असनोत्) = प्राणियों के उपभोग के लिए देते हैं तथा (अहानि) = कार्यों को कर सकने के लिए प्रकाशमय दिनों को प्राप्त कराते हैं। (वनस्पतीन असनोत्) = आन-वट आदि वनस्पतियों को प्राप्त कराते हैं और (अन्तरिक्षम्) = गमनागमन की सुविधा के लिए आकाश को देते हैं। २. हमारे जीवन-मार्ग में अज्ञानान्धकार के आवरणरूप (बलम्) = वलासुर को (विभेद) = विदीर्ण करते हैं। (विवाचः) = विरुद्ध प्रतिकूल वाणीवाले लोगों को भी (नुनदे) = हमसे दूर निराकृत करते हैं। (अथ) = अब (अभिक्रतूनाम्) = अभिचार यज्ञरूप शास्त्रविरुद्ध कर्मों के करनेवालों के (दमिता अभवत्) = दमन करनेवाले होते हैं। एवं, ये 'वल, विवाच् व अभिक्रतु' हमारी जीवन-यात्रा में विघ्न नहीं कर पाते। इसप्रकार प्रभु प्राणियों की इष्ट-प्राप्ति व अनिष्टपरिहार करनेवाले हैं। .

    भावार्थ

    प्रभु सब ओषधि-वनस्पति आदि पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। अज्ञान के आवरण को दूर करते हैं। विरुद्धवाणी व विरुद्ध कौवाले लोगों को हमसे पृथक् करते हैं।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) ईश्वर ने (ओषधीः) ओषधियाँ, (अहानि) और प्रकाशमय दिन (असनोत्) दिये हैं। (वनस्पतीन्) वनस्पतियाँ (अन्तरिक्षम्) और अन्तरिक्ष (असनोत्) दिये हैं। (वलम्) आवरण डालनेवाले कामादि को (बिभेद) परमेश्वर ने छिन्न-भिन्न किया है। (विवाचः) वेदविरुद्ध नास्तिकता का कथन करनेवाले नास्तिकों को (नुनुदे) धकेल दिया है। (अथ) और (दमिता) नास्तिकता की भावनाओं को दबानेवाला, नियन्त्रित करनेवाला परमेश्वर (विवाचः) वेदविरुद्धभाषियों के (क्रतूनाम्) संकल्पों कर्मों और प्रजाओं का (अभि अभवत्) पराभव करता है।

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    विषय

    परमेश्वर और राजा।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा (ओषधीः असनोत्) धान, जौ, और नाना रोगहारी ओषधियों को हमें प्रदान करता है। और वह (अहानि असनात्) हमें प्रकाश वाले दिन कार्य करने के लिये प्रदान करता है। और वह (वनस्पतीन् असनात्) बड़े बड़े वृक्षों, वनस्पतियों को प्रदान करता है। और वह हमें (अन्तरिक्षम् असनोत्) विहार करने के लिये अन्तरिक्ष और उसमें स्थित समस्त ऐश्वर्य प्रदान करता है वह परमेश्वर (बलम्) आत्मा को घेर लेने वाले अन्धकार को, मेघ को सूर्य के समान (विभेद) छिन्न भिन्न कर देता है और वह परमेश्वर (विवाचः) विविध वेदवाणियों को हमारे प्रति (नुनुदे) प्रोति करता है। और वह (अभि क्रतूनाम्) कर्मों और ज्ञानों को साक्षात् करने वाले पुरुषों का (दमिता अभवत्) दमनकारी, शान्ति करने वाला है। राजा के पक्ष में—वह प्रजाको ओषधि दे (अहानि) अत्याज्य कर्मों को उपदेश करे। वनस्पति और आकाश के भोग दे। घेरने वाले शत्रु का नाश करे। विपरीत वाणी के बोलने वाले को दूर करे और (अभिक्रतूनाम्) अपने विपरीत, अभिचार कर्म करने वाले आक्रामकों का दमन करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra gives us herbs and tonics everyday. He gives us waters of the firmament. He opens up the sources of strength and energy. He stimulates the organs of speech and inspires articulation and the growth of various languages. And he is the controller of the men of impetuous action to a steady state of balance in thought and will.

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    Translation

    This mighty fire gives us herbs, this puts the days into order this gives tree and this gives the firmament. This cleaves the cloud of strong power, dispels various germs making bad sound and put under its control the reversely surpassing forces.

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    Translation

    This mighty fire gives us herbs, this puts the days into order this gives tree and this gives the firmament. This cleaves the cloud of strong power, dispels various germs making bad sound and put under its control the reversely surpassing forces.

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    Translation

    The Bounteous God gives us (the souls) the energising herbs and plants. He provides us days for working, the big trees for comfort and shelter as well as the atmosphere to breathe in and move freely about. He dispels the darkness or ignorance and revolves all those who speak ill of or anything against us (the/devotees). Then He becomes the controller or pacificer of those, who perform good deeds or acquire good knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(इन्द्रः) महाप्रतापी पुरुषः (ओषधीः) सोमान्नादिपदार्थान् (असनोत्) षण संभक्तौ-लङ्। सेवितवान् (अहानि) दिनानि (वनस्पतीन्) पिप्पलादिवृक्षान् (असनोत्) सेवितवान् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (बिभेद) भिन्नवान् (वलम्) वल संवरणे-अच्। आवरकं दैत्यम् (नुनुदे) णुद प्रेरणे-लिट्। निराचकार (विवाचः) विरुद्धवाग्युक्तान् (अथ) अपि च (अभवत्) (दमिता) दमु उपशमे-तृच्। नियन्ता (अभिक्रतूनाम्) अभि आभिमुख्येन क्रतवः कर्माणि येषां तेषाम्। विरुद्धकर्मणाम्। अभिमानिनां दुष्टानाम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী পুরুষ] (অহানি) দিন-সমূহ এবং (ওষধীঃ) ঔষধিসমূহ [সোম অন্ন আদি] এর (অসনোৎ) সেবা করেছে, (বনস্পতীন্) বনস্পতি [অশ্বত্থাদি] এবং (অন্তরিক্ষম্) আকাশকে (অসনোৎ) সেবা করেছে। (বলম্) অবরোধকারী/আবরণকারী শত্রুদের (বিভেদ) ছিন্ন-ভিন্ন করেছে এবং (বিবাচঃ) বিরোধী কথক/বক্তাদের (নুনুদে) বিতাড়িত করেছে (অথ) এবং (অভিক্রতূনাম্) বিরুদ্ধ কর্মীর [অভিমান দুষ্টদের] (দমিতা) দমনকারী (অভবৎ) হয়েছে॥১০॥

    भावार्थ

    রাজার উচিত, সদা সঠিক সময়ে পৃথিবী এবং আকাশের পদার্থসমূহকে উপযোগী করে বিরোধী দুষ্টদের বিতাড়িত করা॥১০॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) ঈশ্বর (ওষধীঃ) ঔষধি-সমূহ, (অহানি) এবং প্রকাশময় দিন (অসনোৎ) প্রদান করেছেন। (বনস্পতীন্) বনস্পতি-সমূহ (অন্তরিক্ষম্) এবং অন্তরিক্ষ (অসনোৎ) প্রদান করেছেন। (বলম্) আবরণকারী কামাদিকে (বিভেদ) পরমেশ্বর ছিন্ন-ভিন্ন করেছেন। (বিবাচঃ) বেদবিরুদ্ধ নাস্তিকতার কথক নাস্তিকদের (নুনুদে) দূর করেছেন। (অথ) এবং (দমিতা) নাস্তিকতার ভাবনা-সমূহ দমনকারী, নিয়ন্ত্রিণকারী পরমেশ্বর (বিবাচঃ) বেদবিরুদ্ধভাষীদের (ক্রতূনাম্) সঙ্কল্প কর্ম-সমূহ এবং প্রজাদের (অভি অভবৎ) পরাভব করেন।

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