अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
इन्द्रः॑ स्व॒र्षा ज॒नय॒न्नहा॑नि जि॒गायो॒शिग्भिः॒ पृत॑ना अभि॒ष्टिः। प्रारो॑चय॒न्मन॑वे के॒तुमह्ना॒मवि॑न्द॒ज्ज्योति॑र्बृह॒ते रणा॑य ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । स्व॒:ऽसा । ज॒नय॑न् । अहा॑नि । जि॒गाय॑ । उ॒शिक्ऽभि॑: । पृत॑ना: । अ॒भि॒ष्टि: ॥ प्र । अ॒रो॒च॒यत् । मन॑वे । के॒तुम् । अह्ना॑म् । अवि॑न्दत् । ज्योति॑: । बृ॒ह॒ते । रणा॑य ॥११.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भिः पृतना अभिष्टिः। प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नामविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । स्व:ऽसा । जनयन् । अहानि । जिगाय । उशिक्ऽभि: । पृतना: । अभिष्टि: ॥ प्र । अरोचयत् । मनवे । केतुम् । अह्नाम् । अविन्दत् । ज्योति: । बृहते । रणाय ॥११.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अहानि) दिनों [दिनों के कर्मों] को (जनयत्) प्रकट करते हुए, (स्वर्षाः) सुख देनेहारे (अभिष्टिः) सब ओर मेल करनेवाले, (इन्द्रः) इन्द्र [तेजस्वी सेनापति] ने (उशिग्भिः) प्रीतियुक्त बुद्धिमानों के साथ (पृतनाः) सङ्ग्रामों को (जिगाय) जीता है। उसने (मनवे) मनन करनेवाले मनुष्य के लिये (अह्नाम्) दिनों के (केतुम्) ज्ञान को (प्र अरोचयत्) प्रकाशित कर दिया है और (बृहते) बड़े (रणाय) रण के जीतने के लिये (ज्योतिः) तेज (अविन्दत्) पाया है ॥४॥
भावार्थ
शूर सेनापति दुष्टों की बुराई और शिष्टों की भलाई जताकर शत्रुओं का नाश करे और न्याय की पताका फैलाकर प्रजा को कष्ट से छुड़ावे ॥४॥
टिप्पणी
४−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापतिः (स्वर्षाः) अ० ।२।८। स्वः+षण दाने-विट्, आत्त्वं षत्वं च। सुखस्य दाता (जनयन्) प्रकटयन् (अहानि) दिनानि। दिनकर्माणि (जिगाय) जि जये-लिट्। जितवान् (उशिग्भिः) वशेः कित्। उ० २।७१ वश कान्तौ-इजि प्रत्ययः। उशिजो मेधाविनाम-निघ० ३।१। कामयमानैर्मेधाविभिः (पृतनाः) सङ्ग्रामान्-निघ० २।१७ (अभिष्टिः) यज संगतिकरणे-क्तिन्। अभितः संगतिकर्ता (प्र) प्रकर्षेण (अरोचयत्) अदीपयत् (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (केतुम्) प्रज्ञाम् (अह्नाम्) दिनानाम् (अविन्दत्) अलभत (ज्योतिः) तेजः (बृहते) महते (रणाय) रणं सङ्ग्रामं जेतुम् ॥
विषय
स्वर्षाः अभिष्टिः
पदार्थ
१. (स्वर्षाः) = स्वर्ग को प्राप्त करानेवाला (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशालौ प्रभु (अभिष्टिः) = शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला है। यह (अहानि जनयन्) = प्रकाशमय दिनों को प्रादुर्भूत करता हुआ अज्ञानान्धकारमयी रात्रियों को दूर करता हुआ (उशिग्भिः) = युद्ध की कामनावाले आसुरभावों से युद्ध करके (पृतना:) = शत्रु-सैन्यों को (जिगाय) = जीतता है। २. प्रभु (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए (अल्लाम्) = दिनों के (केतुम्) = प्रज्ञापक सूर्य को (प्रारोचयत्) = आकाश में दीप्त करते हैं-मस्तिष्करूप धुलोक में ज्ञानसूर्य को उदित करते हैं और (बृहते रणाय) = महान् रमणके लिए-मोक्षसुख में विचरने के लिए (ज्योति:) = ज्ञानज्योति को (अविन्दत्) = प्राप्त कराते है।
भावार्थ
प्रभु ही उपासकों के इदयों में प्रकाश करते हुए वासनान्धकार को विनष्ट करते हैं। विचारशील पुरुषों के बदयों में ज्ञानज्योति को दीस करके उन्हंि मोक्षसुख प्रास कराते हैं।
भाषार्थ
(अहानि) दिनों को (जनयन्) उत्पन्न हुआ (इन्द्रः) परमेश्वर (स्वर्षाः) सुखों का प्रदान करता है। (अभिष्टिः) अभीष्ट साधक परमेश्वर (उशिग्भिः) मेधावी व्यक्तियों के द्वारा (पृतनाः) कामादि की सेनाओं पर (जिगाय) विजय पाता है। (मनवे) मनुष्य-जाति के लिए (अह्नां केतुम्) दिनों के झण्डे सूर्य को (प्रारोचयत्) परमेश्वर ने चमकाया है। और (बृहते रणाय) महारमणीयता प्रकट करने के लिए (ज्योतिः) महाज्योतिरूप सूर्य को (अविन्दत्) उसने अपनाया है।
टिप्पणी
[मन्त्र में कई भावनाएँ गुम्फित हुई हैं। उपासकों के लिए मानो नये दिन प्रकट हुए हैं, जबकि उन्हें स्वर्गीय आनन्द मिला है। मनन और निदिध्यासन करनेवाले उपासक जनों के लिए उनके नये दिनों का केतु अर्थात् आध्यात्मिक-सूर्य चमका है, और जीवन को महारमणीय बनाने के लिए उन्हें महाज्योति प्राप्त हुई है। मन्त्र में इन्द्र अर्थात् सम्राट् के कर्त्तव्यों का भी वर्णन हुआ है।
विषय
परमेश्वर और राजा।
भावार्थ
(स्वर्षाः) स्वः-परम सुख का प्रदान करने वाला (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (अहानि जनयन्) अन्धकारों को दूर करने वाले ज्योतिर्मय पदार्थों या दिनों को उत्पन्न करता हुआ (अभिष्टिः) साक्षात् कामनामय होकर या सर्वतोमुख प्रेरणा शक्ति से युक्त होकर (उशिग्भिः) सर्व वशकारी सामर्थ्यों या प्राणों से या काम्य पदार्थों या दीप्तिमान पदार्थों से (पृतनाः) समस्त प्रजाओं को (जिगाय) जीतता है, अपने वश करता है। और (मनेव) मननशील पुरुष के लिये (अन्हाम् केतुम्) तमो नाशक तेजों के ज्ञापक सूर्य को (प्रारोचयत्) अति दीप्त करता है। और (बृहते रणाय) उस बड़े भारी, अति रमणीय सुख, मोक्ष की प्राप्ति के लिये वह स्वयं (ज्योतिः) परम ज्योति को (अविन्दत्) प्राप्त करता है, धारण करता है। राजा के पक्ष में—वह राजा (स्वर्षाः) उत्तम सुखों का दाता, (अभिष्टिः) सर्वत्र गतिशील होकर (अहानि जनयत्) अत्याज्य, अहन्तव्य सेनाबलों को प्राप्त करके (उशिग्भिः) वशकारी सेनापतियों द्वारा सेनाओं को विजय करे। समस्त मनुष्यों को और समस्त सेनाओं के आज्ञापक सेनापति को सब से उन्नत करे। बड़े रमणीय राष्ट्र के लिये और महान् युद्ध के लिये (ज्योतिः) धनको प्राप्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Indra, lord of the showers of joy, reveals and brightens the days, fights the battles alongwith his commandos, and comes out victorious. May he then unfurl the flag of the day’s light and victory and win the light for the mighty battle of life as a whole in the flow of existence.
Translation
Luminous mighty fire causing days (inform of sun) contacting through scorching flames conquers the battle. This illumines the dawns, resplendence for man and attains the light for the happiness of the peole.
Translation
Luminous mighty fire causing days (inform of sun) contacting through scorching flames conquers the battle. This illumines the dawns, resplendence for man and attains the light for the happiness of the people.
Translation
The Splendorous and Peace-showering God, the Fulfiller of all desires, creating the shining spheres, overpowers all the subjects with His overwhelming glory. He makes the sun shine for man to dispel darkness. He displays the highest lustre for the yogis to revel in the highest bliss.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापतिः (स्वर्षाः) अ० ।२।८। स्वः+षण दाने-विट्, आत्त्वं षत्वं च। सुखस्य दाता (जनयन्) प्रकटयन् (अहानि) दिनानि। दिनकर्माणि (जिगाय) जि जये-लिट्। जितवान् (उशिग्भिः) वशेः कित्। उ० २।७१ वश कान्तौ-इजि प्रत्ययः। उशिजो मेधाविनाम-निघ० ३।१। कामयमानैर्मेधाविभिः (पृतनाः) सङ्ग्रामान्-निघ० २।१७ (अभिष्टिः) यज संगतिकरणे-क्तिन्। अभितः संगतिकर्ता (प्र) प्रकर्षेण (अरोचयत्) अदीपयत् (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (केतुम्) प्रज्ञाम् (अह्नाम्) दिनानाम् (अविन्दत्) अलभत (ज्योतिः) तेजः (बृहते) महते (रणाय) रणं सङ्ग्रामं जेतुम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(অহানি) দিন [দিনের কর্ম] (জনয়ৎ) প্রকট করে, (স্বর্ষাঃ) সুখ প্রদানকারী (অভিষ্টিঃ) সর্বত্র সংগতিকর্তা, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [তেজস্বী সেনাপতি] (উশিগ্ভিঃ) প্রিয় বুদ্ধিমানদের সাথে (পৃতনাঃ) সংগ্রাম-সমূহ (জিগায়) জয় করেছেন। তিনি (মনবে) মননশীল মনুষ্যের জন্য (অহ্নাম্) দিনের (কেতুম্) জ্ঞান (প্র অরোচয়ৎ) প্রকাশিত করেছেন এবং (বৃহতে) বৃহৎ (রণায়) রণ/সংগ্রাম জয় করার জন্য (জ্যোতিঃ) তেজ (অবিন্দৎ) প্রাপ্ত করেছেন ॥৪॥
भावार्थ
বীর সেনাপতি দুষ্টদের দমন এবং শিষ্টদের রক্ষা করে শত্রুদের নাশ করে/করুক এবং ন্যায় ধ্বজা বিস্তার করে প্রজাদের কষ্ট থেকে মুক্ত করুক।। ৪।।
भाषार्थ
(অহানি) দিনকে (জনয়ন্) উৎপন্ন (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (স্বর্ষাঃ) সুখ প্রদান করেন ।(অভিষ্টিঃ) অভীষ্ট সাধক পরমেশ্বর (উশিগ্ভিঃ) মেধাবী ব্যক্তিদের দ্বারা (পৃতনাঃ) কামাদির সেনার ওপর (জিগায়) বিজয় প্রাপ্ত করেছেন। (মনবে) মনুষ্য-জাতির জন্য (অহ্নাং কেতুম্) দিনের পতাকা সূর্যকে (প্রারোচয়ৎ) পরমেশ্বর চমকিত/জাজ্বল্যমান করেছেন। এবং (বৃহতে রণায়) মহারমণীয়তা প্রকট করার জন্য (জ্যোতিঃ) মহাজ্যোতিরূপ সূর্যকে (অবিন্দৎ) তিনি নিজস্ব করেছেন।
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