अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 3
निगृ॑ह्य॒ कर्ण॑कौ॒ द्वौ निरा॑यच्छसि॒ मध्य॑मे। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठनिगृ॑ह्य॒ । कर्ण॑कौ॒ । द्वौ । निरा॑यच्छसि॒ । मध्य॑मे ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
निगृह्य कर्णकौ द्वौ निरायच्छसि मध्यमे। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठनिगृह्य । कर्णकौ । द्वौ । निरायच्छसि । मध्यमे ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
हे कुमारी! (द्वौ) दोनों (कर्णकौ) विक्षेपकों अर्थात् रजस् और तमस् का (निगृह्य) निग्रह करके, उन्हें (मध्यमे) मध्यम मार्ग में तू (निरायच्छसि) नियमन करना मानती है—(कुमारि) हे कुमारि! (वै) निश्चय से (तत्) वह तेरा कथन या मानना (न तथा) तथ्य नहीं है, (यथा) जैसे कि (कुमारि) हे कुमारी! (मन्यसे) तू मानती है।
टिप्पणी -
[कर्णकौ=किरणौ (कॄ विक्षेपे), किरति विक्षिपतीति कर्णः (उणादि कोष ३.१०)। मध्यमे=जीवन का मध्यम मार्ग है—“त्यागपूर्वक भोग”। यथा—“तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः” (यजुः০ ४०.१)। अर्थात् न संसार में लिप्त होना और न योग के वैराग्य और अभ्यास-मार्ग का अवलम्बन करना। मन्त्र का अभिप्राय है कि इस मध्यम मार्ग द्वारा जीवन तो सुखी हो सकता है, परन्तु इस मार्ग द्वारा न तो चित्तवृत्तिनिरोध सम्भव है, और न कैवल्य-प्राप्ति। मध्यमार्ग के लिए देखो—(योग १.३३)। मध्यमे= moderate life।]