अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 1
वित॑तौ किरणौ॒ द्वौ तावा॑ पिनष्टि॒ पूरु॑षः। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठवित॑तौ । किरणौ॒ । द्वौ । तौ । आ॑ । पिनष्टि॒ । पूरु॑ष: ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
विततौ किरणौ द्वौ तावा पिनष्टि पूरुषः। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठविततौ । किरणौ । द्वौ । तौ । आ । पिनष्टि । पूरुष: ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(किरणौ) विक्षेपक (द्वौ) दो तत्त्व (विततौ) विशेषरूप में फैले हुए हैं, (तौ) उन दोनों को (पूरुषः) परम पुरुष परमेश्वर (आ पिनष्टि) पूर्णतया पीसता है, विनष्ट करता है—(कुमारि) हे कुमारी! (वै) निश्चय है कि (तत्) वह तेरा कथन (न तथा) तथ्य नहीं (यथा) जैसे कि (कुमारि मन्यसे) हे कुमारी! तू मानती है।
टिप्पणी -
[किरणौ=कॄ विक्षेपे+क्युः (उणादि कोष २.८२)। रजस् और तमस्—इन दो को ‘किरणौ’ कहा है, क्योंकि ये दोनों चित्त को विक्षिप्त कर देते हैं, इससे चित्त योगोपयोगी नहीं रहता। कुमारी मानती है कि इन दोनों विक्षेपक तत्त्वों को परम पुरुष परमेश्वर ही पीस सकता है, इन को पीसने के लिए अस्मदादि पुरुषों का प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। इस विचार का प्रतिषेध मन्त्र में किया है। पूरुषः, देखो—२०.१३१.१७। इस सूक्त में “पूरुष” से अभिप्रेत है परमेश्वर, और पुरुष से अभिप्रेत अस्मदादि पुरुष। कुमारि= आध्यात्मिक तत्त्वों के सम्बन्ध में ज्ञान-चर्चा के लिए कन्याओं को प्रोत्साहित करना चाहिए। यदि कन्याओं की अभिरुचि आध्यात्मिक बन जाये, तो सन्तानों पर आध्यात्मिक विचारों का प्रभाव भी पड़ेगा।]