अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 4
उ॑त्ता॒नायै॑ शया॒नायै॒ तिष्ठ॑न्ती॒ वाव॑ गूहसि। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ता॒नायै॑ । शया॒नायै॒ । तिष्ठ॑न्ती॒ । वा । अव॑ । गूहसि: ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तानायै शयानायै तिष्ठन्ती वाव गूहसि। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठउत्तानायै । शयानायै । तिष्ठन्ती । वा । अव । गूहसि: ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
हे कुमारी! (उत्तानायै) पीठ पर लेटी हुई, (शयानायै) या निद्रावस्था के रूप में, (वा तिष्ठन्ती) या बैठी हुई या खड़ी हुई तू (अवगूहसि) चित्तवृत्तियों का निरोध करती है। (कुमारि) हे कुमारी (वै) निश्चय से (तत्) तेरा वह कथन या मानना (न तथा) तथ्य नहीं है, (यथा) जैसे कि तू (कुमारि) हे कुमारी! (मन्यसे) मानती है।
टिप्पणी -
[योगदर्शन में चित्त की स्थिरता के लिए कई मार्ग दर्शाए हैं। उन मार्गों में “स्वप्नज्ञान” और “निद्रा-ज्ञान” का अवलम्बन (योग १.३८); तथा “यथाभिमतध्यान” को भी साधन माना है (योग १.३९)। कुमारी का अभिप्राय इन साधनों से है। मन्त्र का अभिप्राय है कि यत्कचित् स्थिरता के लिए ये साधन उपकारी तो हो सकते हैं, परन्तु राजसिक तथा तामसिक वृत्तियों का पूर्ण निरोध तो विना ध्यान और वैराग्य के सम्भव नहीं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारण के पश्चात्, “ध्यान” की स्थिति सम्भव है। इसलिए कुमारी का कथन ठीक नहीं।]