अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 5
श्लक्ष्णा॑यां॒ श्लक्ष्णि॑कायां॒ श्लक्ष्ण॑मे॒वाव॑ गूहसि। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठश्लक्ष्णा॑या॒म् । श्लक्ष्णि॑काया॒म् । श्लक्ष्ण॑म् । ए॒व । अव॑ । गूहसि । न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
श्लक्ष्णायां श्लक्ष्णिकायां श्लक्ष्णमेवाव गूहसि। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठश्लक्ष्णायाम् । श्लक्ष्णिकायाम् । श्लक्ष्णम् । एव । अव । गूहसि । न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(श्लक्ष्णायाम्) सुकुमार-मातृशक्ति में, तथा (श्लक्ष्णिकायाम्) अतिसुकुमार-मातृशक्ति में, हे परमेश्वरीय मातृशक्ति! तू (श्लक्ष्णम् एव) सुकुमार-भावों को ही (अवगूहसि) छिपाए रखती है। (कुमारि) हे कुमारी! (वै) निश्चय से (तत्) वह तेरा कथन या मानना (न तथा) तथ्य नहीं है, (यथा) जैसे कि तू (कुमारि) हे कुमारी! (मन्यसे) मानती है।
टिप्पणी -
[कुमारी पुनः परमेश्वरीय-मातृशक्ति को युक्तिरूप में उपस्थित करती है। वह ख्याल करती है कि सांसारिक मातृशक्ति में, हे परमेश्वरीय मातृशक्ति! तूने सुकुमार-भावनाओं का प्रदान किया है, जिनके द्वारा उनका दयार्द्र-हृदय बच्चों के कष्ट-निवारण में सदा तत्पर रहता है। हे परमेश्वर! आप भी जगन्माता हैं, तब आपका भी तो हृदय अपनी सन्तानों के कष्ट-निवारण में तत्पर होना चाहिए। तब सन्तानों के रजस् और तमस् की निवृत्ति भी आपकी स्वाभाविक मातृ-दया द्वारा अवश्य हो जाएगी। श्लक्ष्णिका=अनुकम्पायां “कः”, (अष्टा০ ५.३.७६)। अनुकम्पा द्वारा मातृ-शक्ति की अतिसुकुमारता का द्योतन किया है।]