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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 140

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 140/ मन्त्र 1
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त १४०

    यन्ना॑सत्या भुर॒ण्यथो॒ यद्वा॑ देव भिष॒ज्यथः॑। अ॒यं वां॑ व॒त्सो म॒तिभि॒र्न वि॑न्धते ह॒विष्म॑न्तं॒ हि गच्छ॑थः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ना॒स॒त्या॒ । भु॒र॒ण्यथ॑: । यत् । वा॒ । दे॒वा॒ । भि॒ष॒ज्यथ॑: ॥ अ॒यम् । वा॒म् । व॒त्स: । म॒तिऽभि॑: । न । वि॒न्धते॒ । ह॒विष्म॑न्तम् । हि । गच्छ॑थ: ॥१४०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्नासत्या भुरण्यथो यद्वा देव भिषज्यथः। अयं वां वत्सो मतिभिर्न विन्धते हविष्मन्तं हि गच्छथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । नासत्या । भुरण्यथ: । यत् । वा । देवा । भिषज्यथ: ॥ अयम् । वाम् । वत्स: । मतिऽभि: । न । विन्धते । हविष्मन्तम् । हि । गच्छथ: ॥१४०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 140; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (नासत्या) असत्य व्यवहारों से रहित हे अश्वियो! (यद्) यतः आप दोनों, राष्ट्र द्वारा सौंपे गये कामों को (भुरण्यथः) शीघ्र कर देते हैं, (यद् वा) तथा (देव=देवा=देवौ) आप दोनों देव, राष्ट्र के अज्ञान, दुर्भिक्ष, अनावृष्टि आदि रोगों की (भिषज्यथः) चिकित्सा समय-समय पर करते रहते हैं, इसलिए (वत्सः) वत्स के समान (अयम्) यह प्रजावर्ग (मतिभिः) अपनी मतियों द्वारा, आपके लिए राष्ट्रिय-कार्यों को (न विन्धते) ठीक-ठीक नहीं जान सकता, उनका मूल्याङ्कन ठीक-ठीक नहीं लगा सकता। (हविष्मन्तम्) राज्य-कर को हविरूप जानकर जो प्रजावर्ग राष्ट्रयज्ञ में स्वयमेव आहुतिरूप में देते हैं, उस प्रजावर्ग की ओर (हि) अवश्य (गच्छथः) आप दोनों जाते हैं।

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