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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 140

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 140/ मन्त्र 4
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४०

    यद॒द्य वां॑ नासत्यो॒क्थैरा॑चुच्युवी॒महि॑। यद्वा॒ वाणी॑भिरश्विने॒वेत्का॒ण्वस्य॑ बोधतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒द्य । वा॒म् । ना॒स॒त्या॒ । उ॒क्थै: । आ॒ऽचु॒च्यु॒वी॒महि॑ ॥ यत् । वा॒ । वाणी॑भि: । अ॒श्वि॒ना॒ । ए॒व । इत् । का॒ण्वस्य॑ । बो॒ध॒त॒म् ॥१४०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्य वां नासत्योक्थैराचुच्युवीमहि। यद्वा वाणीभिरश्विनेवेत्काण्वस्य बोधतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अद्य । वाम् । नासत्या । उक्थै: । आऽचुच्युवीमहि ॥ यत् । वा । वाणीभि: । अश्विना । एव । इत् । काण्वस्य । बोधतम् ॥१४०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 140; मन्त्र » 4

    भाषार्थ -
    (नासत्या) हे असत्य व्यवहारों से रहित अश्वियो! (यद् अद्य) जो आज, अर्थात् तुम्हें तुम्हारे पदों पर नियुक्त करते समय, (उक्थैः) वैदिक सूक्तों द्वारा (वाम्) तुम दोनों को, हम सबने मिलकर (आ चुच्युवीमहि) तुम्हारे कर्त्तव्यों का निर्देश किया है, या मेघ के सदृश तुम दोनों पर कर्त्तव्यामृत की वर्षा की है, तथा (यद् वा) जो कुछ (अश्विना) हे अश्वियो! हमने (वाणीभिः) निजवाणियों द्वारा तुम्हें तुम्हारे कर्तव्यों का बोध कराया है, (एव इत्) उन्हें ठीक-ठीक प्रकार से (काण्वस्य) मेधावियों द्वारा शासित प्रजावर्ग को (बोधतम्) तुम दोनों जता दिया करो।

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