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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 142

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 3
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४२

    यदु॑षो॒ यासि॑ भा॒नुना॒ सं सूर्ये॑ण रोचसे। आ हा॒यम॒श्विनो॒ रथो॑ व॒र्तिर्या॑ति नृ॒पाय्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । उ॒ष॒: । यासि॑ । भा॒नुना॑ । सम् । सूर्ये॑ण । रो॒च॒से॒ ॥ आ । ह॒ । अ॒यम् । अ॒श्विनो॑: । रथ॑: । व॒र्ति: । या॒ति॒ । नृ॒ऽपाय्य॑म् ॥१४२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदुषो यासि भानुना सं सूर्येण रोचसे। आ हायमश्विनो रथो वर्तिर्याति नृपाय्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । उष: । यासि । भानुना । सम् । सूर्येण । रोचसे ॥ आ । ह । अयम् । अश्विनो: । रथ: । वर्ति: । याति । नृऽपाय्यम् ॥१४२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (उषः) हे उषा! तू (सूर्येण) सूर्य के कारण (सम् रोचसे) अति रोचक रूप धारण करती है। (यद्) जब तू (भानुना) अपनी प्रभा के साथ (यासि) चली जाती है, तब (नृपाय्यम्) प्रजावर्ग के खान-पान तथा रक्षा को लक्ष्य करके, (ह) निश्चय से, (अश्विनोः) दोनों अश्वियों का (अयम्) यह (रथः) अपना-अपना रथ (आ याति) प्रजावर्ग के कार्यों के निरीक्षणार्थ आता है और (वर्तिः) मार्ग, या वर्तन-वर्ताव, अर्थात् व्यापार और उद्योग-धन्धे (याति) चलने लगते हैं।

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