अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 1
अभु॑त्स्यु॒ प्र दे॒व्या सा॒कं वा॒चाह॑म॒श्विनोः॑। व्या॑वर्दे॒व्या म॒तिं वि रा॒तिं मर्त्ये॑भ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठअभु॑त्सि । ऊं॒ इति॑ । प्र । दे॒व्या । सा॒कम् । वा॒चा । अ॒हम् । अ॒श्विनो॑: ॥ वि । आ॒व॒: । दे॒वि॒ । आ । मतिम् । वि । रा॒तिम् ।मर्त्ये॑भ्य: ॥१४२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभुत्स्यु प्र देव्या साकं वाचाहमश्विनोः। व्यावर्देव्या मतिं वि रातिं मर्त्येभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअभुत्सि । ऊं इति । प्र । देव्या । साकम् । वाचा । अहम् । अश्विनो: ॥ वि । आव: । देवि । आ । मतिम् । वि । रातिम् ।मर्त्येभ्य: ॥१४२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अहम्) मैं सम्राट् ने (देव्या वाचा) दैवीवाणी अर्थात् वेदवाणी के उपदेशानुसार, (साकम् अश्विनोः) साथ-साथ दोनों अश्वियों को उनके कर्त्तव्यों का (अभुत्सि उ) ठीक प्रकार से बोध करा दिया है। (देव्या) और इस दैवीवाणी द्वारा (मतिम्) वैदिक-मन्तव्यों को, (वि आवः) विशेषतया प्रकट कर दिया है। तथा (मर्त्येभ्यः) मनुष्य प्रजावर्गों से, जो उनहोंने (रातिम्) दानरूप में कर लेना है, तथा प्रत्युपकार में जो उन्होंने प्रजावर्ग को देना है उसे भी (वि आवः) मैंने विशेषतया प्रकट कर दिया है।