अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
तं पृ॒च्छन्ती॒ वज्र॑हस्तं रथे॒ष्ठामिन्द्रं॒ वेपी॒ वक्व॑री॒ यस्य॒ नू गीः। तु॑विग्रा॒भं तु॑विकू॒र्मिं र॑भो॒दां गा॒तुमिषे॒ नक्ष॑ते॒ तुम्र॒मच्छ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । पृ॒च्छन्ती॑ । वज्र॑ऽहस्तम् । र॒थे॒ऽस्थम् । इन्द्र॑म् । वेपी॑ । वक्व॑री । यस्य॑ । नु । गी: ॥ तु॒वि॒ऽग्रा॒भम् । तु॒वि॒ऽकू॒र्मिम् । र॒भ॒:ऽदाम् । गा॒तुम् । इ॒षे॒ । नक्ष॑ते । तुम्र॑म् । अच्छ॑ ॥३६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
तं पृच्छन्ती वज्रहस्तं रथेष्ठामिन्द्रं वेपी वक्वरी यस्य नू गीः। तुविग्राभं तुविकूर्मिं रभोदां गातुमिषे नक्षते तुम्रमच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । पृच्छन्ती । वज्रऽहस्तम् । रथेऽस्थम् । इन्द्रम् । वेपी । वक्वरी । यस्य । नु । गी: ॥ तुविऽग्राभम् । तुविऽकूर्मिम् । रभ:ऽदाम् । गातुम् । इषे । नक्षते । तुम्रम् । अच्छ ॥३६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(वेपी) उदात्तादि स्वरों की दृष्टि से सुरीले वेपनोंवाली, (वक्वरी) और यथार्थज्ञान का कथन करनेवाली (यस्य गीः) जिसकी वेदवाणी—(वज्रहस्तम्) न्यायवज्रधारी, (रथेष्ठाम्) शरीर-रथ तथा ब्रह्माण्ड-रथ में स्थित, (तुविग्राभम्) मजबूत पकड़वाले, (तुविकूर्मिम्) महती कृति शक्ति से सम्पन्न, (रभोदाम्) शक्ति प्रदाता, (गातुम्) वेदवाणी के उपदेष्टा, (तुम्रम्) तुमुल अर्थात् महान् (तम् इन्द्रम्) उस परमेश्वर के सम्बन्ध में (पृच्छन्ती) पूछती हुई, (इषे) प्रजाजनों के अभीष्टों के लिए (नक्षते) प्राप्त हुई है।
टिप्पणी -
[तुविग्राभम्=संसार में ग्रह, उपग्रह, सूर्य नक्षत्र, तारागण, विना किसी अवलम्ब के महाकाश में नियत गतियाँ कर रहे हैं, और स्थान भ्रष्ट नहीं होते। इसका कारण यह है कि ये सब परमेश्वर की मजबूत पकड़ में हैं। रभोदाम्=रभस् (strength; आप्टे)+दा। पृच्छन्ती=जैसे कि मन्त्र ४ में “कस्ते भागः, किं वयः”—द्वारा परमेश्वर से प्रश्न किये हैं। इस प्रकार के प्रश्न वेदों में कई स्थानों में किये गये हैं। गातुम्=गायति सः गातुः (उणा০ कोष १.७३)। नक्षते=गतिकर्मा (निघं০ २.१४); गतेः त्रयोऽर्थाः ज्ञानम् गतिः, प्राप्तिश्च।]