अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 49/ मन्त्र 3
श॒क्रो वाच॒मधृ॑ष्णुहि॒ धाम॑धर्म॒न्वि रा॑जति। विम॑दन्ब॒र्हिरास॑रन् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒क्र: । वाच॒म् । अधृ॑ष्णुहि । धाम॑ । धर्म॑न् । वि । रा॑जति ॥ विम॑दन् । ब॒र्हि: । आ॒सर॑न् ॥४९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
शक्रो वाचमधृष्णुहि धामधर्मन्वि राजति। विमदन्बर्हिरासरन् ॥
स्वर रहित पद पाठशक्र: । वाचम् । अधृष्णुहि । धाम । धर्मन् । वि । राजति ॥ विमदन् । बर्हि: । आसरन् ॥४९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 49; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
हे उपासक! तू भी (शक्रः) शक्तिमान् है, (वाचम्) अपनी स्तुतिवाणियों का आरोहण किया कर, और (अधृष्णुहि=आधृष्णुहि) अपने पापों का पूर्णतया पराभव कर। (धामधर्मन्) तेरे ज्योतिर्मय हृदय-धाम में, हृदयगृह में, (विराजति) परमेश्वर विराजमान है। (मदन्) परमेश्वर तुझे आनन्दित करता हुआ (बर्हि) तेरे हृदयासन की ओर (वि आसरन्) विशेष रूप में सरक रहा है, शनैः-शनैः प्रकट हो रहा है।
टिप्पणी -
[धामधर्मन्=धाम (ज्योतिः) धर्मन् (गृहे) योगी जब हृदय में ध्यानमग्न हो जाता है, तो उसे हृदय में विविध प्रकार की ज्योतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। यथा—तत्र (बुद्धिसत्त्वे) स्थितिवैशारदद्यात् प्रवृत्तिः, सूर्येन्दुग्रहमणिप्रभारूपाकारेण विकल्पते” (योग, व्यासभाष्य १.३६)। अर्थात् “चित्त जब सत्त्वप्रधान हो जाता है, तब हृदय में स्थिर करने पर सूर्य, चन्द्र, ग्रह, मणिप्रभा आदि नाना ज्योतियों का दर्शन होता है”। ऐसी अवस्था उपस्थित हो जाने पर योगी परमेश्वर के दर्शन का लाभ कर लेता है।]