Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 59

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 59/ मन्त्र 2
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५९

    कण्वा॑ इव॒ भृग॑वः॒ सूर्या॑ इव॒ विश्व॒मिद्धी॒तमा॑नशुः। इन्द्रं॒ स्तोमे॑भिर्म॒हय॑न्त आ॒यवः॑ प्रि॒यमे॑धासो अस्वरन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कण्वा॑:ऽइव । भृग॑व: । सूर्या॑ऽइव । विश्व॑म् । इत् । धी॒तम् । आ॒न॒शु॒: ॥ इन्द्र॑म् । स्तोमे॑भि: । म॒हऽय॑न्त: । आ॒यव॑: । प्रि॒यमे॑धास: । अ॒स्व॒र॒न् ॥५९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कण्वा इव भृगवः सूर्या इव विश्वमिद्धीतमानशुः। इन्द्रं स्तोमेभिर्महयन्त आयवः प्रियमेधासो अस्वरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कण्वा:ऽइव । भृगव: । सूर्याऽइव । विश्वम् । इत् । धीतम् । आनशु: ॥ इन्द्रम् । स्तोमेभि: । महऽयन्त: । आयव: । प्रियमेधास: । अस्वरन् ॥५९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 59; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (कण्वाः) जिनकी चित्तवृत्तियाँ निमीलित हो गई हैं, और जिन्हें योगजन्य मेधा अर्थात् ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राप्त हो चुकी है, ऐसे योगियों के (इव) सदृश, (भृगवः) ध्यानाभ्यास में परिपक्व तथा रजोमयी और तमोमयी वृत्तियों को मानो जिन्होंने भून दिया है ऐसे उपासक भी, (धीतम्) ध्यान द्वारा विषयीकृत (विश्वम् इत्) समग्र वस्तुओं का (आनशुः) ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, और वे (सूर्या इव) सूर्यों के सदृश प्रकाशमान हो जाते हैं। जबकि (आयवः) सर्वसाधारण मनुष्य, तथा (प्रियमेधासः) ज्ञान की प्राप्ति के प्रेमीजन, (स्तोमेभिः) स्तुतियों द्वारा (इन्द्रम्) परमेश्वर की (महयन्तः) महिमा को (अस्वरन्) उच्चस्वरों में गाते ही रहते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top