अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
अ॒भि द्यु॒म्नानि॑ व॒निन॒ इन्द्रं॑ सचन्ते॒ अक्षि॑ता। पी॒त्वी सोम॑स्य वावृधे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । द्यु॒म्नानि॑ । व॒निन॑: । इ॒न्द्र॑म् । स॒च॒न्ते॒ । अक्षि॑ता । पी॒त्वी॒ । सोम॑स्य । व॒वृ॒धे॒ ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि द्युम्नानि वनिन इन्द्रं सचन्ते अक्षिता। पीत्वी सोमस्य वावृधे ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । द्युम्नानि । वनिन: । इन्द्रम् । सचन्ते । अक्षिता । पीत्वी । सोमस्य । ववृधे ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(वनिनः) भक्तिरसवाले उपासक के (अक्षिता) न क्षीण होनेवाले अर्थात् सतत-प्रवाही, भक्तिरसरूपी (द्युम्नानि) धन, (इन्द्रम् अभि) परमेश्वर की ओर (सचन्ते) प्रवाहित हो रहे हैं। परमेश्वर (सोमस्य) भक्तिरस का (पीत्वी) पान करके (वावृधे) उपासक की वृद्धि करता है।
टिप्पणी -
[सचन्ते=गतिकर्मा (निघं০ २.१४)।]