अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
एन्द्र॑ नो गधि प्रि॒यः स॑त्रा॒जिदगो॑ह्यः। गि॒रिर्न वि॒श्वत॑स्पृ॒थुः पति॑र्दि॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒न्द्र॒ । न॒: । ग॒धि॒ । प्रि॒य: । स॒त्रा॒ऽजित् । अगो॑ह्य: ॥ गि॒रि: । न । वि॒श्वत॑: । पृ॒थु: । पति॑: । दि॒व: ॥६४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्र नो गधि प्रियः सत्राजिदगोह्यः। गिरिर्न विश्वतस्पृथुः पतिर्दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इन्द्र । न: । गधि । प्रिय: । सत्राऽजित् । अगोह्य: ॥ गिरि: । न । विश्वत: । पृथु: । पति: । दिव: ॥६४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (आ गधि) हमारे हृदयों में आ विराजिए। आप (नः) हमें (प्रियः) प्रिय लगते हैं, (सत्राजित्) सत्य है कि आप सर्वविजयी हैं, (अगोह्यः) बाह्य दृष्टि से छिपे हुए भी आप अन्तर्दृष्टि द्वारा छिपे हुए नहीं, आप (गिरिः न) आकाशव्यापी मेघ के सदृश (विश्वतः पृथुः) सब ओर विस्तृत हैं, (दिवः पतिः) द्युलोक के भी आप पति हैं, स्वामी हैं, रक्षक हैं।