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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 64

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 64/ मन्त्र 3
    सूक्त - नृमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६४

    त्वं हि शश्व॑तीना॒मिन्द्र॑ द॒र्ता पु॒रामसि॑। ह॒न्ता दस्यो॒र्मनो॑र्वृ॒धः पति॑र्दि॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । शश्व॑तीनाम् । इन्द्र॑ । द॒र्ता । पु॒राम् । असि॑ ॥ ह॒न्ता । दस्यो॑: । मनो॑: । वृ॒ध: । पति॑: । दि॒व: ॥६४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं हि शश्वतीनामिन्द्र दर्ता पुरामसि। हन्ता दस्योर्मनोर्वृधः पतिर्दिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । हि । शश्वतीनाम् । इन्द्र । दर्ता । पुराम् । असि ॥ हन्ता । दस्यो: । मनो: । वृध: । पति: । दिव: ॥६४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 64; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (त्वम्) आप (हि) ही, (शश्वतीनाम्) शाश्वतकाल से परम्परा द्वारा होनेवाली (पुराम्) शरीररूपी नगरियों का (दर्ता असि) विदारण करनेवाले हैं, आप ही उपासकों के (दस्योः) उपक्षयकारी अविद्या आदि के (हन्ता) हननकर्त्ता हैं, (मनोः) श्रवण, मनन, निदिध्यासन करनेवाले को (वृधः) बढ़ाते हैं, (दिवः पतिः) और द्युलोक के पति स्वामी और रक्षक हैं।

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