अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 64/ मन्त्र 5
इन्द्र॑ स्थातर्हरीणां॒ नकि॑ष्टे पू॒र्व्यस्तु॑तिम्। उदा॑नंश॒ शव॑सा॒ न भ॒न्दना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । स्था॒त॒: । ह॒री॒णा॒म् । नकि॑: । ते॒ । पू॒र्व्यऽस्तु॑तिम् ॥ उत् । आ॒नं॒श॒ । शव॑सा । न । भ॒न्दना॑ ॥६४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र स्थातर्हरीणां नकिष्टे पूर्व्यस्तुतिम्। उदानंश शवसा न भन्दना ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । स्थात: । हरीणाम् । नकि: । ते । पूर्व्यऽस्तुतिम् ॥ उत् । आनंश । शवसा । न । भन्दना ॥६४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 64; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(हरीणाम्) विषयों में हरण करनेवाली या प्रत्याहार-साधन सम्पन्न इन्द्रियों के (स्थातः) अधिष्ठाता (इन्द्र) हे परमेश्वर! (ते) आप द्वारा दी गई (पूर्व्यस्तुतिम्) पूर्वकालीन वैदिक स्तुतियों तक (नकिः) कोई कवि नहीं (उदानंश) पहुंच पाया, (न) न (शवसा) बल की दृष्टि से और न (भन्दना) कल्याण करने और सुखप्रदान करने की दृष्टि से। अर्थात् किसी भी कवि की ऐसी रचना नहीं हो सकती जो कि वैदिक रचनाओं से बढ़कर शक्ति प्रदान कर सके और कल्याण तथा सुख के मार्ग का उपदेश दे सके।