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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 78/ मन्त्र 3
कु॒वित्स॑स्य॒ प्र हि व्र॒जं गोम॑न्तं दस्यु॒हा गम॑त्। शची॑भि॒रप॑ नो वरत् ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒वित्ऽस॑स्य । प्र । हि । व्र॒जम् । गोऽम॑न्तम् । द॒स्यु॒ऽहा । गम॑त् ॥ शची॑भि: । अप॑: । न॒ । व॒र॒त् ॥७८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कुवित्सस्य प्र हि व्रजं गोमन्तं दस्युहा गमत्। शचीभिरप नो वरत् ॥
स्वर रहित पद पाठकुवित्ऽसस्य । प्र । हि । व्रजम् । गोऽमन्तम् । दस्युऽहा । गमत् ॥ शचीभि: । अप: । न । वरत् ॥७८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 78; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(कुवित्सस्य) जो उपासक अपने पाप-वृत्रों के हनन में अपनी पर्याप्त शक्ति लगा देता है, उसके, (गोमन्तम्) ऐन्द्रियिक (व्रजम्) घेरे अर्थात् शरीर के प्रति, (दस्युहा) क्षयकारी-पापों का हनन करनेवाला परमेश्वर, (हि) निश्चय से, (प्र) शीघ्र (आ गमत्) आ प्रकट होता है। और (शचीभिः) अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा (नः) हम उपासकों के (अप वरत्) अज्ञानमय परदे को हटा देता है।
टिप्पणी -
[कुवित्सस्य=कुवित् बहुशः स्यति हिनस्ति, तस्य (सायण)। अप वरत्=अपावृणोत् (सायण)।]