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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 97/ मन्त्र 2
वृक॑श्चिदस्य वार॒ण उ॑रा॒मथि॒रा व॒युने॑षु भूषति। सेमं नः॒ स्तोमं॑ जुजुषा॒ण आ ग॒हीन्द्र॒ प्र चि॒त्रया॑ धि॒या ॥
स्वर सहित पद पाठवृक॑: । चि॒त् । अ॒स्य॒ । वा॒र॒ण: । उ॒रा॒ऽमथि॑: । आ । व॒युने॑षु । भू॒ष॒ति॒ ॥ स: । इ॒मम् । न॒: । स्तोम॑म् । जु॒जु॒षा॒ण: । आ । ग॒हि॒ । इन्द्र॑ । प्र । चि॒त्रया॑ । धि॒या ॥९७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वृकश्चिदस्य वारण उरामथिरा वयुनेषु भूषति। सेमं नः स्तोमं जुजुषाण आ गहीन्द्र प्र चित्रया धिया ॥
स्वर रहित पद पाठवृक: । चित् । अस्य । वारण: । उराऽमथि: । आ । वयुनेषु । भूषति ॥ स: । इमम् । न: । स्तोमम् । जुजुषाण: । आ । गहि । इन्द्र । प्र । चित्रया । धिया ॥९७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 97; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अस्य) इस परमेश्वर-सम्बन्धी (वयुनेषु) सत्यज्ञानों के प्राप्त हो जाने पर, (वृकः चित्) भेड़िये के समान क्रूर स्वभाववाला व्यक्ति, तथा (वारणः) हाथी के सदृश प्रबल तथा मदमस्त, और (उरामथिः) अति व्यथादायक व्यक्ति भी (आ भूषति) स्तुतियों द्वारा परमेश्वर की शोभा को बढ़ाने लगता है। (इन्द्र) हे परमेश्वर! (सः) वह आप (नः) हमारे (इमम्) इस (स्तोमम्) स्तवन को (जुजुषाणः) प्रीतिपूर्वक स्वीकार करते हुए, (चित्रया धिया) आश्चर्यकारी प्रज्ञा के प्रदान द्वारा (आगहि) हमें प्राप्त हूजिए।