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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
कदू॒ न्वस्याकृ॑त॒मिन्द्र॑स्यास्ति॒ पौंस्य॑म्। केनो॒ नु कं॒ श्रोम॑तेन॒ न शु॑श्रुवे ज॒नुषः॒ परि॑ वृत्र॒हा ॥
स्वर सहित पद पाठकत् । ऊं॒ इति॑ । नु । अ॒स्य॒ । अकृ॑तम् । इन्द्र॑स्य । अ॒स्ति॒ । पौंस्य॑म् ॥ केनो॒ इति॑ । नु । क॒म् । श्रोम॑तेन । न । शु॒श्रु॒वे॒ । ज॒नुष॑: । परि॑ । वृ॒त्र॒ऽहा ॥९७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कदू न्वस्याकृतमिन्द्रस्यास्ति पौंस्यम्। केनो नु कं श्रोमतेन न शुश्रुवे जनुषः परि वृत्रहा ॥
स्वर रहित पद पाठकत् । ऊं इति । नु । अस्य । अकृतम् । इन्द्रस्य । अस्ति । पौंस्यम् ॥ केनो इति । नु । कम् । श्रोमतेन । न । शुश्रुवे । जनुष: । परि । वृत्रऽहा ॥९७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 97; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(अस्य) इस (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (पौंस्यं कृतम्) वृद्धिप्रद कर्म (कद् उ नु न) कब नहीं (आशुश्रुवे) सर्वत्र सुने गये? (श्रोमतेन) श्रुतिसंमत (केन) किस विधि द्वारा (कम्) किस की प्रार्थना को (न शुश्रुवे) परमेश्वर ने नहीं सुना? (जनुषः) किस जन्मधारी उपासक के (वृत्रहा) पाप-वृत्रों का हनन, (परि) पूर्णरूप में, परमेश्वर ने [न कृतम्] नहीं किया? अभिप्राय यह कि परमेश्वर के वृद्धिप्रद कर्म सदा सुने गये हैं। यथार्थ विधि द्वारा की गई प्रार्थनाओं को परमेश्वर सदा सुनता है। तथा सच्चे उपासकों के पापों का हनन परमेश्वर पूर्णतया कर देता है।
टिप्पणी -
[पौंस्यम्=पुंस् अभिवर्धने।]