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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 98/ मन्त्र 2
स त्वं न॑श्चित्र वज्रहस्त धृष्णु॒या म॒ह स्त॑वा॒नो अ॑द्रिवः। गामश्वं॑ र॒थ्यमिन्द्र॒ सं कि॑र स॒त्रा वाजं॒ न जि॒ग्युषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस: । त्वम् । न॒: । चि॒त्र॒ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । म॒ह: । स्त॒वा॒न: । अ॒द्रि॒ऽव॒: ॥ गाम् । अश्व॑म् । र॒थ्य॑म् । इ॒न्द्र । सम् कि॒र॒ । स॒त्रा । वाज॑म् । न । जि॒ग्युषे॑ ॥९८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया मह स्तवानो अद्रिवः। गामश्वं रथ्यमिन्द्र सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे ॥
स्वर रहित पद पाठस: । त्वम् । न: । चित्र । वज्रऽहस्त । धृष्णुऽया । मह: । स्तवान: । अद्रिऽव: ॥ गाम् । अश्वम् । रथ्यम् । इन्द्र । सम् किर । सत्रा । वाजम् । न । जिग्युषे ॥९८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 98; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(चित्र) हे आश्चर्यस्वरूप! (वज्रहस्त) हे ज्ञानवज्रधारी! (अद्रिवः) हे पापों का भक्षण अर्थात् ध्वंस कर देनेवाले! (महः) महाज्ञान अर्थात् पराविद्या का (स्तवानः) कथन करते हुए आप, (धृष्णुया) अज्ञान का पराभव करनेवाले महाज्ञान के द्वारा हमारे अज्ञानों का विनाश कीजिए। (इन्द्र) हे परमेश्वर! (गाम्) वेदवाणी या इन्द्रिय-समूह और (रथ्यम्) शरीर-रथ के वहन करने योग्य (अश्वम्) अश्वसदृश बलिष्ठ मन, हमें (सं किर) प्रदान कीजिए, (न) जैसे कि (जिग्युषे) इन्द्रिय-विजेता के लिए आप, (सत्रा वाजम्) सच्चा आध्यात्मिक बल प्रदान करते हैं।