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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गोष्ठः, अहः, अर्यमा, पूषा, बृहस्पतिः, इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गोष्ठ सूक्त

    सं वः॑ सृजत्वर्य॒मा सं पू॒षा सं बृह॒स्पतिः॑। समिन्द्रो॒ यो ध॑नंज॒यो मयि॑ पुष्यत॒ यद्वसु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । व॒: । सृ॒ज॒तु॒ । अ॒र्य॒मा । सम् । पू॒षा । सम् । बृह॒स्पति॑: । सम् । इन्द्र॑: । य: । ध॒न॒म्ऽज॒य: । मयि॑ । पु॒ष्य॒त॒ । यत् । वसु॑ ॥१४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं वः सृजत्वर्यमा सं पूषा सं बृहस्पतिः। समिन्द्रो यो धनंजयो मयि पुष्यत यद्वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । व: । सृजतु । अर्यमा । सम् । पूषा । सम् । बृहस्पति: । सम् । इन्द्र: । य: । धनम्ऽजय: । मयि । पुष्यत । यत् । वसु ॥१४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    [हे गौओ!] (व:) तुम्हारा (सं सृजतु) संसर्ग करे [शुद्ध उदक आदि के साथ, मन्त्र १] (अर्यमा) राष्ट्र का न्यायाधीश (सम्) तुम्हारा संसर्ग करे (पूषा) राष्ट्र के पोषण का अधिकारी, (सम्) तुम्हारा संसर्ग करे (बृहस्पतिः) बृहती-वेदवाणी का अर्थात् धर्म शिक्षा का अधिकारी। (यः) जो (धनंजयः) धनाधिपति (इन्द्रः) सम्राट् है वह (सम्) तुम्हारा संसर्ग करे [शुद्ध उदक आदि के साथ, मन्त्र १], (मयि) ताकि मुझ [प्रत्येक राष्ट्रवासी] में, (पुष्यत) हे गौओ! परिपुष्ट करो (यद्) जो कि (वसु) क्षीरघृतादि तुम्हारी सम्पत्ति है।

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