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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, गोष्ठः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गोष्ठ सूक्त

    शि॒वो वो॑ गो॒ष्ठो भ॑वतु शारि॒शाके॑व पुष्यत। इ॒हैवोत प्र जा॑यध्वं॒ मया॑ वः॒ सं सृ॑जामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शि॒व: । व॒: । गो॒ऽस्थ: । भ॒व॒तु॒ । शा॒रि॒शाका॑ऽइव । पु॒ष्य॒त॒ । इ॒ह । ए॒व । उ॒त । प्र । जा॒य॒ध्व॒म् । मया॑ । व॒: । सम् । सृ॒जा॒म॒सि॒ ॥१४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिवो वो गोष्ठो भवतु शारिशाकेव पुष्यत। इहैवोत प्र जायध्वं मया वः सं सृजामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिव: । व: । गोऽस्थ: । भवतु । शारिशाकाऽइव । पुष्यत । इह । एव । उत । प्र । जायध्वम् । मया । व: । सम् । सृजामसि ॥१४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 5

    भाषार्थ -
    [हे गौओ!] (गोष्ठः) गोशाला (व:) तुम्हारे लिए (शिव:) सुखकारी (भवतु) हो, (शारिशाकेव१) मैना और [शाका] शुक अर्थात् तोते के सदृश (पुष्यत) गोशाला में परिपुष्ट होओ। (उत) तथा (इह एव) इस गोशाला में ही (प्रजायध्वम्) तुम सन्ताने उत्पन्न करो, (वः) तुम्हारा (मया) मेरे अर्थात् अपने साथ (सं सृजामसि) मैं संसर्ग करता हूँ। [मन्त्र ४ में शका पाठ है, शाका पाठ नहीं।]

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