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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वनस्पति

    उत्ता॑नपर्णे॒ सुभ॑गे॒ देव॑जूते॒ सह॑स्वति। स॒पत्नीं॑ मे॒ परा॑ णुद॒ पतिं॑ मे॒ केव॑लं कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्ता॑नऽपर्णे । सुऽभ॑गे । देव॑ऽजूते । सह॑स्वति । स॒ऽपत्नी॑म् । मे॒ । परा॑ । नु॒द॒ । पति॑म् । मे॒ । केव॑लम् । कृ॒धि॒ ॥१८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तानपर्णे सुभगे देवजूते सहस्वति। सपत्नीं मे परा णुद पतिं मे केवलं कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्तानऽपर्णे । सुऽभगे । देवऽजूते । सहस्वति । सऽपत्नीम् । मे । परा । नुद । पतिम् । मे । केवलम् । कृधि ॥१८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (उत्तानपर्णे) ऊपर की ओर फैले हुए पत्तोंवाली, (सुभगे) सौभाग्य प्रदान करनेवाली, (देवजूते) दिव्य प्राकृतिक जीवात्मा द्वारा प्रेरित हुई, (सरस्वति) पराभव करनेवाली हे ओषधि! (मे) मेरी (सपत्नीम्) सपत्नी को (पराणुद) परे धकेल और (पतिम्) पति को (मे) मेरे लिए (केवलम्) केवल (कृधि) कर दे।

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