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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुब्गर्भाचतुष्पादुष्णिक् सूक्तम् - वनस्पति

    उत्त॑रा॒हमु॑त्तर॒ उत्त॒रेदुत्त॑राभ्यः। अ॒धः स॒पत्नी॒ या ममाध॑रा॒ साध॑राभ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्ऽत॑रा । अ॒हम् । उ॒त्ऽत॒रे॒ । उत्ऽत॑रा । इत् । उत्ऽत॑राभ्य: । अ॒ध: । स॒ऽपत्नी॑ । या । मम॑ । अध॑रा । सा । अध॑राभ्य: ॥१८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तराहमुत्तर उत्तरेदुत्तराभ्यः। अधः सपत्नी या ममाधरा साधराभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतरा । अहम् । उत्ऽतरे । उत्ऽतरा । इत् । उत्ऽतराभ्य: । अध: । सऽपत्नी । या । मम । अधरा । सा । अधराभ्य: ॥१८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 4

    भाषार्थ -
    (उत्तरे) हे उत्कृष्ट औषधि! तेरे कारण (अहम्) मैं (उत्तरा) उत्कृष्ट हो गई हूँ, (उत्तराभ्यः) उत्कृष्टा नारियों से (इत्) भी (उत्तरा) मैं उत्कृष्टा हूँ। (अधः)१ तदनन्तर (या मम सपत्नी) जो मेरी सपत्नी है (सा) वह (अधराभ्यः) निकृष्टाओं से भी (अधरा) निकृष्टा है। [पति प्राप्त करनेवाली कुमारी सर्वश्रेष्ठा है, गुणों में। अतः वह पति प्राप्त करने में योग्यता रखती है और सपत्नी गुणों में निकृष्टाओं से भी निकृष्टा है, अत: वह त्याज्या है।]

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