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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - उष्णिग्गर्भापथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - वनस्पति

    अ॒भि ते॑ऽधां॒ सह॑माना॒मुप॑ तेऽधां॒ सही॑यसीम्। मामनु॒ प्र ते॒ मनो॑ व॒त्सं गौरि॑व धावतु प॒था वारि॑व धावतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । ते॒ । अ॒धा॒म् । सह॑मानाम् । उप॑ । ते॒ । अ॒धा॒म् । सही॑यसीम् । माम् । अनु॑ । प्र । ते॒ । मन॑: । व॒त्सम् । गौ:ऽइ॑व । धा॒व॒तु॒ । प॒था । वा:ऽइ॑व । धा॒व॒तु॒ ॥१८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि तेऽधां सहमानामुप तेऽधां सहीयसीम्। मामनु प्र ते मनो वत्सं गौरिव धावतु पथा वारिव धावतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । ते । अधाम् । सहमानाम् । उप । ते । अधाम् । सहीयसीम् । माम् । अनु । प्र । ते । मन: । वत्सम् । गौ:ऽइव । धावतु । पथा । वा:ऽइव । धावतु ॥१८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 6

    भाषार्थ -
    [हे भावी पति!] (ते अभि) तेरे अभिमुख अर्थात् संमुख (सहमानाम्) पराभव करनेवाली औषधि को (अधाम्) मैं भाविनी पत्नी ने रख दिया है, (सहीयसीम्) अतिशय से पराभव करनेवाली औषधि के (उप) तेरे समीप (अधाम्) मैंने रख दिया है; (माम् अनु) मेरी अनुकूलता में (ते) तेरा (मन:) मन (प्र धावतु) शीघ्रता से दौड़कर आए, (इव) जैसेकि (गौः) अर्थात् दुग्धवती गौ (वत्सम्) निज वत्स की ओर (धावतु) दौड़कर आती है, (इव) जैसेकि (वाः) वारि अर्थात् जल (पथा) निम्न मार्ग द्वारा (धावतु) दौड़कर प्रवाहित होता है।

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