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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः, सांमनस्यम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त

    येन॑ दे॒वा न वि॒यन्ति॒ नो च॑ विद्वि॒षते॑ मि॒थः। तत्कृ॑ण्मो॒ ब्रह्म॑ वो गृ॒हे सं॒ज्ञानं॒ पुरु॑षेभ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । दे॒वा: । न । वि॒ऽयन्ति॑ । नो इति॑ । च॒ । वि॒ऽद्वि॒षते॑ । मि॒थ: । तत् । कृ॒ण्म॒: । ब्रह्म॑ । व॒: । गृ॒हे । स॒म्ऽज्ञान॑म् । पुरु॑षेभ्य: ॥३०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन देवा न वियन्ति नो च विद्विषते मिथः। तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । देवा: । न । विऽयन्ति । नो इति । च । विऽद्विषते । मिथ: । तत् । कृण्म: । ब्रह्म । व: । गृहे । सम्ऽज्ञानम् । पुरुषेभ्य: ॥३०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 4

    भाषार्थ -
    (येन) जिस द्वारा (देवाः) माता-पिता आदि देव (न वियन्ति) न विरुद्ध-विरुद्ध मार्ग पर चलते हैं, (नो च) और न (मिथः) परस्पर (विद्विषते) विद्वेष करते हैं, (तत्) उस (ब्रह्म) अर्थात् वेद को (वः) तुम्हारे (गृहे) घर में (कृण्मः) हम नियम करते हैं, जोकि (पुरुषेभ्यः) गृहस्थ पुरुषों के लिए (संज्ञानम्) गृहजीवन सम्बन्धी यथार्थ ज्ञान देता है। देवा:=मातृदेवो भव, पितृदेवोभव, आचार्यदेवो भव (तैत्तिरीय उपनिषद् अनुवाक ११, संदर्भ २)। गृहस्थ पुरुषों के लिए वेदस्वाध्याय नियत किया है, ताकि उन्हें गृहस्थ धर्म का सम्यक्-ज्ञान हो सके।

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