अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - शङ्खमणिः, कृशनः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त
हिर॑ण्याना॒मेको॑ऽसि॒ सोमा॒त्त्वमधि॑ जज्ञिषे। रथे॒ त्वम॑सि दर्श॒त इ॑षु॒धौ रो॑च॒नस्त्वं प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यानाम् । एक॑: । अ॒सि॒ । सोमा॑त् । अधि॑ । ज॒ज्ञि॒षे॒ । रथे॑ । त्वम् । अ॒सि॒ । द॒र्श॒त: । इ॒षु॒ऽधौ । रो॒च॒न: । त्वम् । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥१०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यानामेकोऽसि सोमात्त्वमधि जज्ञिषे। रथे त्वमसि दर्शत इषुधौ रोचनस्त्वं प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्यानाम् । एक: । असि । सोमात् । अधि । जज्ञिषे । रथे । त्वम् । असि । दर्शत: । इषुऽधौ । रोचन: । त्वम् । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥१०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
[हे शंख!] (हिरण्यानाम्) हिरण्य-सदृश चमकीले पदार्थों में (एक: असि) तु भी एक चमकीला पदार्थ है, (त्वम्) तू (सोमात् अधि) जल से या मानो चन्द्रमा से (जज्ञिषे) पैदा हुआ है। (रथे) योद्धा के रथ में (त्वम्) तू (दर्शतः) दर्शनीय (असि) होता है, (इषुधौ) इषुओं को धारण करनेवाले निषङ्ग में, तूणीर में (त्वम्) तू (रोचन:) चमकता है। (न:) हमारी (आयूंषि) आयुओं को (प्र तारिषत्) वह बढ़ाये।
टिप्पणी -
[सोम=जल (आप्टे)। अथवा सोम=चन्द्रमा। चन्द्रमा पृथिवी का उपग्रह है, पृथिवी की परिक्रमा करता और पृथिवी से कटकर अलग हुआ है। पृथिवी से शङ्ख पैदा होता है। सम्भवतः चन्द्रमा में भी किसी समय समुद्र की स्थिति हो और उसमें भी किसी समय शङ्ख उत्पन्न हुए हों। सम्भवतः इसीलिए 'शङ्खप्रस्थः' नामक एक स्थान-विशेष चन्द्रमा में है (आप्टे)। योद्धाओं के रथ में शङ्ख की स्थिति कही है। युद्ध-काल में यह शत्रु की स्थिति तथा उसकी चाल-ढाल को सूचित कर सकने के लिए है। इसी प्रकार योद्धा के निषङ्ग में भी उसकी स्थिति कही है। रथ में स्थिति तो रथ-योद्धा के लिए है, और निपङ्ग में स्थिति पदाति-योद्धा के लिए कही है।]