अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - शङ्खमणिः, कृशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त
वाता॑ज्जा॒तो अ॒न्तरि॑क्षाद्वि॒द्युतो॒ ज्योति॑ष॒स्परि॑। स नो॑ हिरण्य॒जाः श॒ङ्खः कृश॑नः पा॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठवाता॑त् । जा॒त: । अ॒न्तरि॑क्षात् । वि॒ऽद्युत॑: । ज्योति॑ष: । परि॑ । स: । न॒: । हि॒र॒ण्य॒ऽजा: । श॒ङ्ख: । कृश॑न: । पा॒तु॒ । अंह॑स: ॥१०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वाताज्जातो अन्तरिक्षाद्विद्युतो ज्योतिषस्परि। स नो हिरण्यजाः शङ्खः कृशनः पात्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठवातात् । जात: । अन्तरिक्षात् । विऽद्युत: । ज्योतिष: । परि । स: । न: । हिरण्यऽजा: । शङ्ख: । कृशन: । पातु । अंहस: ॥१०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(वातात्) मानसून वायु से, (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से, (विद्युत:) विद्युत् से, (ज्योतिषस्परि) ज्योति से (जातः) उत्पन्न हुआ, (सः) वह (कृशन:) तनूकृत, (हिरण्यजाः) सुवर्णोत्पन्न (शङ्खः) शंख (नः) हमारी (पातु) रक्षा करे (अंहसः) हनन से।
टिप्पणी -
[शङ्ख की उत्पत्ति होती है समुद्र से तथा नदियोंवाले प्रदेशों से, और इनमें जल की सत्ता मानसून वायु से होती है, जिसका निर्देश वातात् द्वारा हुआ है। अंतरिक्षत्=अंतरिक्षस्थ मेघों से भी जल प्रदान होता है। विद्युत:= मेधीया-विद्युत् भी वर्षा द्वारा जल प्रदान करती है। ज्योतिषस्परि=सूर्य-ज्योति से भी जल प्रदान होता है। सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन होने से भी वर्षा होती है। शङ्ख यतः जलप्राय प्रदेशों से प्राप्त होता है, अतः मन्त्र के पूर्वार्ध में उन स्थानों का निर्देश किया है जोकि जलप्रदान में कारण है। हिरण्यजाः= जैसे जलीय प्रदेशों से कपर्दिकाएं श्वेत तथा पीतवर्ण की, उभयविध, प्राप्त होती हैं, इसी प्रकार शङ्ख भी सम्भवतः श्वेत और पीत भी प्राप्त होते हैं। हिरण्य पीतवर्णी होता है, पीतवर्णी होने से पीत शंख को हिरण्यजाः१ कहा है। कृशन:=कृश तनूकरणे (दिवादिः), पीतवर्णी शङ्ख तनूकृत अवस्था में, अल्प परिणाम में, प्राप्त होता है। अंहस: = आहन्तीति अंहः, (निरुक्त ४।४।२५; तूतावपद (५७)। शङ्ख:=शाम्यतीति (उणादि १।१०२, दयानन्द); शङ्ख रोगों को शान्त करता है, अतः शङ्ख पद शंखभस्म का निर्देश करता है। कार्य में कारण का उपचार हुआ है। वैद्यनाथ पञ्चाङ्ग में शङ्ख-भस्म के सम्बन्ध में कहा है कि "यह यकृत्, तिल्ली, उदर के विकार, आमांशु तथा संग्रहणी, पेट दर्द अम्लपित्त, गुल्म, अजीर्ण आदि में विशेष उपयोगी है। यह पित्ताधिक्य को कम करती है (वैद्यनाथपञ्चाङ्ग संवत् २०३०)।] [१, अथवा हिरण्यजा: शङ्खः' का अभिप्राय है, 'हिरण्यभस्ममिश्रित शंखभस्म।']