अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
सूक्त - ऋभु
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - त्रिपदा गायत्री
सूक्तम् - रोहिणी वनस्पति सूक्त
रोह॑ण्यसि॒ रोह॑ण्य॒स्थ्नश्छि॒न्नस्य॒ रोह॑णी। रो॒हये॒दम॑रुन्धति ॥
स्वर सहित पद पाठरोह॑णी । अ॒सि॒ । रोह॑णी ।अ॒स्थ्न: । छि॒न्नस्य॑ । रोह॑णी । रो॒हय॑ । इ॒दम् । अ॒रु॒न्ध॒ती॒ ॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रोहण्यसि रोहण्यस्थ्नश्छिन्नस्य रोहणी। रोहयेदमरुन्धति ॥
स्वर रहित पद पाठरोहणी । असि । रोहणी ।अस्थ्न: । छिन्नस्य । रोहणी । रोहय । इदम् । अरुन्धती ॥१२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
[रोहणि] लोहित वर्णवाली हे लाक्षा ! [अथर्व० ५।५।७] (रोहिणी असि) तू क्षतों को प्ररोहित करती है, भर देती है, (छिन्नस्य) टूटी (अस्थ्नः) हड्डी को (रोहणी) तू प्ररोहित करती है, छोड़ देती है। (अरुन्धति) हे घावों का निरोध करनेवाली ! (इदम्) इस कटे अङ्ग को (रोहय) तू रोहित कर, भर दे, ठीक कर दे।
टिप्पणी -
[अरुन्धती= अरूंषि धयति इति; कटे भाग के पीप, और रक्त को पी जानेवाली। अरुन्धती पद में 'अरुः' पद है (देखें, अथर्व० ५।५।४)। अरुः=घाव।]