अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
स॑त्य॒जितं॑ शपथ॒याव॑नीं॒ सह॑मानां पुनःस॒राम्। सर्वाः॒ सम॒ह्व्योष॑धीरि॒तो नः॑ पारया॒दिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्य॒ऽजित॑म् । श॒प॒थ॒ऽयाव॑नीम् । सह॑मानम् । पु॒न॒:ऽस॒राम् । सर्वा॑: । सम् । अ॒ह्वि॒ । ओष॑धी: । इ॒त: । न॒: । पा॒र॒या॒त् । इति॑ ॥१७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्यजितं शपथयावनीं सहमानां पुनःसराम्। सर्वाः समह्व्योषधीरितो नः पारयादिति ॥
स्वर रहित पद पाठसत्यऽजितम् । शपथऽयावनीम् । सहमानम् । पुन:ऽसराम् । सर्वा: । सम् । अह्वि । ओषधी: । इत: । न: । पारयात् । इति ॥१७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(सत्यजितम्) यथार्थरूप में विजय पानेवाली, (शपथयावनीम्) शपथ [लेने की आदत] को पृथक करनेवाली, हटानेवाली (पुनःसराम्) [व्याधि की निवृत्ति के लिए] बार बार सरण्य करनेवाली, प्रवृत्त होनेवाली, (सहमानाम्) व्याधि को पराभूत करनेवाली ‘सहदेवी’ औषधि का (समह्वि) मैंने आह्वान किया है, इस औषधि के साथ (सर्वाः ओषधी:) सब औषधियों को भी ताकि (न:) हमें, (इतः) इस व्याधि से, (पारयात्) प्रयोक्ता पार करे, (इति) इसलिए।
टिप्पणी -
[शपथ स्वयं ली जाती है, और शाप दूसरे को दिया जाता है। यावनी=यू मिश्रणामिश्रणयोः (अदादि:), अमिश्रण अर्थ अभिप्रेत है। शपथ झूठी होती है। इस झूठ-आदत को सहदेवी, अन्य ओषधियों के साथ मिलकर पृथक् करती है, हटाती है।]