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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
    44

    स॑त्य॒जितं॑ शपथ॒याव॑नीं॒ सह॑मानां पुनःस॒राम्। सर्वाः॒ सम॒ह्व्योष॑धीरि॒तो नः॑ पारया॒दिति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्य॒ऽजित॑म् । श॒प॒थ॒ऽयाव॑नीम् । सह॑मानम् । पु॒न॒:ऽस॒राम् । सर्वा॑: । सम् । अ॒ह्वि॒ । ओष॑धी: । इ॒त: । न॒: । पा॒र॒या॒त् । इति॑ ॥१७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्यजितं शपथयावनीं सहमानां पुनःसराम्। सर्वाः समह्व्योषधीरितो नः पारयादिति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्यऽजितम् । शपथऽयावनीम् । सहमानम् । पुन:ऽसराम् । सर्वा: । सम् । अह्वि । ओषधी: । इत: । न: । पारयात् । इति ॥१७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सत्यजितम्) सत्य से जीनेवाली, (शपथयावनीम्) शाप वा क्रोध वचन हटानेवाली, (सहमानाम्) शत्रुओं को हरानेवाली, और (पुनःसराम्) बारंबार आगे बढ़ानेवाली सेना को, और (सर्वाः) सब (ओषधीः) ताप नाश करनेवाली प्रजाओं को (सम् अह्वि) यथावत् मैंने आवाहन किया है, (इतः) इस [कठिन कर्म] से (नः) हमें (पारयात्) वह [पुरुषार्थी] पार लगावे, (इति) इस अभिप्राय से ॥२॥

    भावार्थ

    प्रजा प्रतिनिधि सब हितकारी सेना और प्रजागणों को बुला कर शत्रुओं से बचने के लिये राजा बनाने का प्रयोजन प्रकाशित करे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(सत्यजितम्) जि-क्विप्, तुक्। सत्येन जयशीलम् (शपथयावनीम्) यु अभिश्रणे-णिच्, ल्युट्-ङीप्। शपथस्य आक्रोशस्य क्रोधवचनस्य पृथक्कर्त्री-नाशयित्रीम् (सहमानाम्) अभिभवशीलाम् (पुनःसराम्) पुनः पुनः सरति प्रवर्तते सा तां सेनां प्रजां वा (सर्वाः) (सम्) सम्यक्। (अह्वि) अह्वे। आहूतवानस्मि (ओषधीः) तापनिवारिकाः प्रजाः (इतः) अस्मात् कठिनकर्मणः (नः) अस्मान् (पारयात्) पार कर्मसमाप्तौ। अस्मत्कर्तव्यं समापयेत्। पारं गमयेत् स राजा (इति) अनेन हेतुना ॥

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    विषय

    'शपथयाबनी' औषधि

    पदार्थ

    १. (सत्यजितम्) = सचमुच रोगों को जीतनेवाली (शपथयावनीम्) = पीड़ाजनित आक्रोशों को दूर करनेवाली, (सहमानाम्) = रोगों को अभिभूत करनेवाली (पुन: सराम्) = अनेक व्याधियों की निवृत्ति के लिए फिर-फिर मलों का नि:सारण करनेवाली इस अपामार्ग ओषधि को (सम् अव्हि) = मैं पुकारता हूँ। २. इसीप्रकार में अन्य भी (सर्वाः ओषधी:) = सब ओषधियों को पुकारता हूँ इति जिससे यह ओषधि (इतः) इस रोग से (न:) = हमें (पारयात्) = पार करे।

    भावार्थ

    मैं रोग-निवारक ओषधियों का आह्वान करता हूँ और इनके ठीक प्रयोग से नीरोग बनता हूँ।

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    भाषार्थ

    (सत्यजितम्) यथार्थरूप में विजय पानेवाली, (शपथयावनीम्) शपथ [लेने की आदत] को पृथक करनेवाली, हटानेवाली (पुनःसराम्) [व्याधि की निवृत्ति के लिए] बार बार सरण्य करनेवाली, प्रवृत्त होनेवाली, (सहमानाम्) व्याधि को पराभूत करनेवाली ‘सहदेवी’ औषधि का (समह्वि) मैंने आह्वान किया है, इस औषधि के साथ (सर्वाः ओषधी:) सब औषधियों को भी ताकि (न:) हमें, (इतः) इस व्याधि से, (पारयात्) प्रयोक्ता पार करे, (इति) इसलिए।

    टिप्पणी

    [शपथ स्वयं ली जाती है, और शाप दूसरे को दिया जाता है। यावनी=यू मिश्रणामिश्रणयोः (अदादि:), अमिश्रण अर्थ अभिप्रेत है। शपथ झूठी होती है। इस झूठ-आदत को सहदेवी, अन्य ओषधियों के साथ मिलकर पृथक् करती है, हटाती है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apamarga Herb

    Meaning

    I take up and reinforce the truly conquering, cursed disease reverting, successfully challenging and persistently acting herb in which I collect and concentrate the power and efficacy of all herbs in general so that it may give us success in fighting against all diseases.

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    Translation

    Surely conquering, anguish-removing, over-powering, having reverted bloom, O apámarga, you-and all other herbs have I invoked. May they save us from these diseases.

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    Translation

    Let me collect all the medicines which are powerful in conquering diseases really; which are powerful to banish the anger and aversion, which are mighty and able to be used frequently. Let them save us here from diseases.

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    Translation

    O efficacious, pain-relieving malady-controlling, aperient medicine, thee, and all other medicines have I gathered, so that they may relieve us from all sorts of disease!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सत्यजितम्) जि-क्विप्, तुक्। सत्येन जयशीलम् (शपथयावनीम्) यु अभिश्रणे-णिच्, ल्युट्-ङीप्। शपथस्य आक्रोशस्य क्रोधवचनस्य पृथक्कर्त्री-नाशयित्रीम् (सहमानाम्) अभिभवशीलाम् (पुनःसराम्) पुनः पुनः सरति प्रवर्तते सा तां सेनां प्रजां वा (सर्वाः) (सम्) सम्यक्। (अह्वि) अह्वे। आहूतवानस्मि (ओषधीः) तापनिवारिकाः प्रजाः (इतः) अस्मात् कठिनकर्मणः (नः) अस्मान् (पारयात्) पार कर्मसमाप्तौ। अस्मत्कर्तव्यं समापयेत्। पारं गमयेत् स राजा (इति) अनेन हेतुना ॥

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